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शनिवार, 30 मई 2015

स्वतंत्र भारत में उपनिवेशवाद


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मंगलवार, 24 मार्च 2015

भारत में लोकतंत्र की आड़ में साम्राज्यवादी शासन


अब से लगभग 2600  वर्ष पूर्व ग्रीस के नगर एथेन्स में डेमोक्रिटस नामक विद्वान द्वारा विश्व का प्रथम  लोकतंत्र स्थापित किया गया, जिसमें सभी नागरिकों को नगर राज्य व्यवस्था में सम्मान अधिकार दिए गए थे।  मतान्तर होने पर बहुमत के आधार पर व्यवस्थात्मक निर्णय लिए जाते थे, जिसका अर्थ 50 प्रतिशत से अधिक  मत प्राप्त करना किसी निर्णय के लिए अनिवार्य होता है। अतः लोकतंत्र का अर्थ सार्वजनिक साधनों के लोकहित में उपयोग हेतु व्यवस्था करना है, न कि लोगों पर शासन करना।
तत्कालीन साम्राज्यवादी प्लेटो तथा उसके शिष्य अरिस्तू ने लोकतंत्र का घोर विरोध किया, एथेंस पर मकदूनिया के राजा फिलिप से आक्रमण करा नगर राज्य व्यवस्था को नष्ट कराया, और डेमोक्रिटस द्वारा रचित समस्त लोकतंत्रीय साहित्य को नष्ट करा दिया। साम्राज्यवादियों के अनुसार कुछ व्यक्ति ही शासन हेतु योग्य होते हैं जिनका निर्धारण ईश्वर द्वारा किया गया होता है। शेष जनसामान्य इन शासकों के वैभव-भोगों हेतु  पशुवत श्रम करने के निमित्त होते हैं।
यद्यपि अब तक अनेक प्रकार के शासन तंत्र माने जाने लगे हैं, किन्तु इन सभी के मूल में  शासकों की दो  प्रकार की मानसिकता ही पाई जाती है – शासितों के लिए शोषणपरक अथवा समानतापरक, जिन्हें क्रमशः लोकतांत्रिक तथा साम्राज्यतंत्री ही कहा जाएगा। शोषणपरक शासन में कुछ अन्य सामान्य लक्षण भी पाये जाते हैं, जिनपर इसी आलेख में आगे विचार किया जाएगा।
घटकीय राजनीति
1947 में स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतंत्र के नाम पर जो शासन व्यवस्था स्थापित की गयी , वह लोकतंत्रीय कदापि नहीं है। क्योंकि इसमें शासक वर्ग चुना जाता है, न कि व्यवस्थापक। इन चुनावों में विजित होने के लिए 50 प्रतिशत मत प्राप्त करने की अनिवार्यता नहीं है, केवल सर्वाधिक मत प्राप्त करना पर्याप्त होता है। इस कारण से भारत में शासन हेतु चुने गए व्यक्ति औसतन 30 प्रतिशत मत प्राप्त करके ही यह अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उनके चयन में 70 प्रतिशत मतदाताओं की अवहेलना होती रही है। ऐसे तथाकथित जनप्रतिनिधि चुने जाने के पश्चात केवल अपने मतदाताओं के हित-साधन के लिए शेष 70 प्रतिशत लोगों के हितों की बलि देते रहते हैं। इंदिरा गांधी द्वारा रायबरेली का विकास, मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने ग्राम सैफई का विकास, मायावती द्वारा अपने ग्राम बादलपुर का विकास, और अब नरेंद्र मोदी द्वारा वाराणसी विकास पर विशेष बल, आदि इसी प्रवृति के उदहारण हैं। ये लोकतंत्र के विपरीत लक्षण हैं।
इस अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का विशेष कारण यह है कि राजनीति में राष्ट्र-नायक होने योग्य व्यक्तियों का अभाव है, केवल क्षेत्रीय, जातीय, सम्प्रदायी व्यक्ति ही सत्ता के उलटफेर में लगे हुए हैं। ये घटकीय राजनेता येन-केन-प्रकारेण अपने चयनित व्यक्ति-समूहों से विजय योग्य मत प्राप्त कर लेते हैं और राजनैतिक सत्ता पर अधिकार पा लेते हैं। ऐसे घटकीय राजनेता देश का सर्वांगीण विकास नहीं कर सकते, इनकी सोच केवल अपने घटक समर्थकों तक ही सीमित रहती है।
धार्मिक राजनीति
जैसा की ऊपर कहा जा चुका है कि साम्राज्यवादी इस मान्यता के समर्थक होते हैं कि उनका शासन का अधिकार ईश्वर प्रदत्त होता है। इसको पुष्ट करने के लिए वे अपने राजनैतिक दांवपेंचों में किसी न किसी तरह  ईश्वर की खोखली परिकल्पना के संवाहक धर्म्म का आश्रय अवश्य लेते हैं और उस धर्म के ब्राह्मण समाज को अपने साथ रखते हैं, जो जनसामान्य को भ्रमित कर ठगने में सिद्धहस्त होता है।  इनके माध्यम से वे जनसामान्य पर राजनैतिक शासन से पूर्व अपना मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित करते हैं।
यहाँ धर्म एवं धर्म्म का अंतर स्पष्ट करना वांछनीय है। वैदिक साहित्य में धर्म शब्द का उपयोग किसी वस्तु अथवा व्यक्ति द्वारा धारण करने योग्य गुणों के लिए किया गया, जिसमें मानवीय नैतिक मर्यादाएँ भी सम्मिलित हैं। इस शब्द का दुरूपयोग करते हुए वैदिक विद्वानों के शत्रुओं ने, जिनमें प्रमुखतः असुर  कहा जाता है,‘धर्म’ शब्द का अर्थ काल्पनिक भगवान के संवाहक पाखंडों प्रचारित किया। अतः बाद के वैदिक साहित्य  में नैतिक मर्यादाओं के लिए ‘धर्म’ और पाखंडों के लिए ‘धर्म्म’ शब्द का उपयोग किया गया। उपरोक्त प्रसंग में धर्म एवं धर्म्म का उपयोग इसी वैदिक प्रावधान के अनुसार किया गया है।
पारिवारिक राजनीति
साम्राज्यवादियों का दूसरा सामान्य लक्षण यह होता है कि ये राजनैतिक  सत्ता पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए अधिक से अधिक राजनैतिक पदों पर अपने ही परिवार के सदस्यों को आसीन करते हैं। इसके पीछे इनकी वह परिकल्पना भी सक्रिय रहती है कि वे और उनके परिवार के सदस्य ही राजसत्ता के अधिकारी  के रूप में ईश्वर द्वारा चयनित हैं। शेष जनसमुदाय को ये लोग राजसत्ता के लिए अयोग्य एवं पशुतुल्य शोषण हेतु निर्मित मानते हैं।
संसाधनों का केंद्रीकरण
साम्राज्यवादी कदापि यह नहीं चाहते कि जनसामान्य को राष्ट्र के संसाधनों में भागीदारी मिले। इसे प्रतिबंधित करने के लिए वे सार्वजनिक संसाधनों का अधिकाधिक केन्द्रीयकरण कर अपने अधिकार में रखते हैं।  स्वयं को लोकहितैषी दर्शाने के लिए वे इन  में से यदा-कदा कुछ टुकड़े लोगों की और फेंकते रहते हैं जिन्हें वे समाज कल्याण योजनाएं कहते हैं और इनके माध्यम से लोगों में भिखारी की मानसिकता विकसित करते रहते हैं ताकि लोग उनकी दयादृष्टि की आशा बनाये रखें। इस भिक्षा का उपयोग वे निर्धन एवं अशिक्षित लोगों  के मत बटोरने के लिए प्रयोग करते हैं। लोग नहीं जान पाते कि जो कुछ उन्हें समाज कल्याण के नाम पर दिया जा रहा है वह उन्हीं की सम्पदा का अल्पांश है। सच्चा लोकतंत्र सार्वजनिक संसाधनों के विकेंद्रीकरण का पक्षधर होता है।
दोष निवारण उपाय
स्वतंत्र भारत के अधिकाँश सत्तासीन राजनेताओं में उपरोक्त सभी लक्षण पाये जाते रहे हैं जो उनके साम्राज्यवादी होने की पुष्टि करते हैं। ये  कदापि यह नहीं चाहेंगे कि देश में सच्ची लोकतंत्रीय व्यवस्था स्थापित हो।
उपरोक्त दोषों का निवारण तभी संभव है जब चुनाव में विजय हेतु 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करना अनिवार्य हो।  इस एक मात्र प्रावधान से घटकीय राजनेता सत्ता के गलियारों से स्वतः ही बाहर हो जायेंगे, जिनके स्थान पर सक्षम एवं समग्र राष्ट्रवादी नेतृत्व उभरेगा। वर्त्तमान स्थिति में ये घटकीय राजनेता अपने भृष्ट आचरणों से  लोकतंत्र को दूषित किये रहते हैं, जिसके कारण अच्छे लोग राजनीति से दूरी बनाये रखते हैं। घटकीय नेतृत्व कदापि लोकतांत्रिक नहीं हो सकता, अपितु साम्राज्यवादी होता है।

गुरुवार, 3 मई 2012

राष्ट्रपति कौन बने इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि केसा व्यक्ति बने


एक और सामयिक आलेख हमारे अतिथि विचारक द्वारा 
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गुरुवार, 5 अगस्त 2010

शक्ति की पूजा और दासत्व की मनोदशा

भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व से आज तक जो भारत में नहीं बदला है - वह है जन-साधारण द्वारा शक्ति की पूजा और उनका दासत्व की मनोदशा. वस्तुतः इन दोनों में गहन सम्बन्ध है, इसलिए एक में परिवर्तन हुए बिना दूसरे में परिवर्तन संभव नहीं है. इस मनोदशा के मूल में शासकों और समाज के अग्रणी जनों द्वारा जन-साधारण का सतत संस्कारण है, जो तब से अब तक यथावत किया जा रहा है. लोगों में दासत्व भाव बनाए रखने के लिए उन्हें दयनीय बना कर रखा जाता है.

शक्ति-पूजा का विधि-विधान 
मूलतः व्यक्ति को शक्ति देना शासन नीति के विरुद्ध है. अतः लोगों को शासन के अधीन बनाये रखने के लिए उन्हें संस्कारित इस प्रकार किया जाता है कि वे स्वयं शक्तिहीन हैं और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसकी उन्हें पूजा-अर्चना करनी चाहिए ताकि वह प्रसन्न रहे और यथावश्यकता उनकी रक्षा करता रहे. ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में शक्ति की पूजा का आरम्भ यवनों ने किया जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी देवी दुर्गा के रूप में रात्रि में उनका संहार करने निकलती थीं तो भयभीत होकर वे रात्रिभर जागते रहते थे और देवी के गुणगान करते रहते थे ताकि देवी उनपर कृपा करे और उनका संहार न करे. तब से अब तक किसी न किसी रूप में लोगों को शक्ति की पूजा के लिए संस्कारित किया जाता रहा है ताकि वे स्वयं शक्तिशाली बनने का प्रयास न करके शक्ति पर निर्भर बने रहें.

स्वतन्त्रता के बाद लोगों की शत्रुओं से रक्षा का दायित्व वैधानिक रूप में सेना और पुलिस का है जो लोकतांत्रिक विधान के अनुसार लोगों के अधीन व्यवस्थित हैं. इसे लोगों द्वारा स्वयं अपनी रक्षा के लिए मात्र कार्य विभाजन माना जा सकता है. किन्तु लोगों को पुलिस का उपयोग करने के लिए भी किसी शक्तिशाली माध्यम की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारी जो जनतंत्र में लोकसेवक हैं, से अपने कार्य करने के लिए भी उन्हें सशक्त माध्यम की आवश्यकता होती है. अतः शक्ति पूजा का मूल प्रभाव यह है कि लोग अशक्त हो गए हैं और अशक्त ही बने रहना चाहते हैं. इस बाव से उन्हें दायित्व-विहीन बने रहने का मनोवैज्ञानिक लाभ भी प्राप्त होता है.

लोगों में स्वयं अशक्त बने रहने की भावना इतनी कूट-कूट कर भर दी गयी है कि उन्हें जीवन-यापन हेतु प्रत्येक कदम पर किसी न किसी सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता बनी रहती है. इसी मनोदशा के कारण वे सदैव किसी सशक्त व्यक्ति के अनुयायी बने रहना चाहते रहते हैं, चाहे वह कितना भी दुर्जन क्यों न हो. अतः स्वतंत्र भारत की राजनीति में बलशालियों का बोलबाला है, सज्जनों और विद्वानों के लिए वहां कोई स्थान नहीं रह गया है.

Mercy: Complete First Seasonदया का विधि-विधान
भारत में निर्धन और निस्सहाय पर दया करना प्रत्येक समर्थ व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक उपदेशित किया जाता है, उसे सशक्त  बनाना उपदेशित नहीं किया जाता ताकि उसे किसी की दया की आवश्यकता ही न हो. इस दया विधान में समाज के सभी अग्रणी वर्ग - ईश्वर भक्त, धर्मात्मा, शासक-प्रशासक, राजनेता और समाज सुधारक, आदि सम्मिलित हैं. स्वतन्त्रता से पूर्व इसका उपदेश केवल धर्मात्मा, समाज-सुधारक, आदि ही दिया करते थे, शासक-प्रशासक इस बारे में उदासीन ही रहते थे. किन्तु स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनेताओं ने केन्द्रीय और सभी राज्य सरकारों के माध्यम से इसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मान लिया है, ताकि देश में निर्धन और निस्सहाय लोग सदा बने रहें और उनसे दया की आशा करते रहें. समाज कल्याण योजनाएं यथा आवास-निर्माण हेतु धन, निःशुल्क अथवा सस्ते खाद्यान्न, आदि इसी प्रकार की दया दर्शाने के विधि-विधान हैं. इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्व जो दया विधान सामाजिक स्तर पर था, स्वतन्त्रता के बाद उसे राजनैतिक स्तर पर अपना लिया गया है. इस  संस्कारण के दो स्पष्ट प्रभाव हैं -
  • समाज का निर्धन वर्ग सदा-सदा के लिए निर्धन ही बना रहना चाहता है ताकि वह दया-पात्र बना रहे और उसका जीवन यापन केवल दया के आश्रय पर होता रहे.
  • निर्धन वर्ग में स्वयं समर्थ होने का आत्म-विश्वास नहीं रह गया है जिसके कारण वह सदा किसी न किसी का डस बना रहना चाहता है.   
उपरोक्त दोनों प्रभाव भारत में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में बहुत सशक्त बाधक हैं. वस्तुतः जन-साधारण आज भी एक-क्षत्र  शासन के अधीन रहने योग्य है और वह इसी योग्य बने रहना चाहता है.