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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

भारत में हिंदुत्व की स्थापना आरम्भ


महाभारत २०१९-3
हिंदुत्व की दो विशेषताएं हैं – समाज में छूताछूत और परिश्रमी उत्पादक एवं वैभवशाली अनुत्पादक वर्ग. देश को हिन्दू राष्ट्र की घोषणा जब भी हो, मोदी सरकार द्वारा उपरोक्त दोनों व्यवस्थाएं लागू की जा रही हैं. इस प्रथम चरण में आधुनिक हिंदुत्व को लागू किया गया है जिसके अंतर्गत राजनेता आधुनिक ब्राह्मण हैं, एवं प्रशासक आधुनिक क्षत्रिय. ये दोनों मिलकर देश का वैभवशाली अनुत्पादक वर्ग बनाता है. देश के व्यापारी, किसान एवं पशुपालक आधुनिक वैश्य हैं, एवं शेष सभी अछूत शूद्र. ये दो वर्ग देश के परिश्रमी उत्पादक वर्ग में सम्मिलित हैं.
उत्तर प्रदेश के वर्तमान हिन्दू राजा ने प्रदेश के राजनेताओं के विरुद्ध चल रहे 20,000 आपराधिक मुकदमों को वापिस लेने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी है. यह देश के सभी राजनेताओं को संरक्षण प्रदान करने का आरम्भ है, उनके विरुद्ध आगे कोई मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. इसमें बस शर्त यह होगी कि वे देश के निरंकुश शासकों के विरुद्ध कुछ नहीं बोलेंगे. मूल हिंदुत्व के ब्राह्मणों को भी यह संरक्षण प्राप्त था.
प्रशासकों को अत्यधिक वेतन-भत्ते एवं अनेकानेक निःशुल्क सुख-सुविधाएँ देते हुए उन्हें छूट दे दी गयी है कि बस जीवन का आनंद लें, उन्हें कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं है. इसके कुछ अनुभव मुझे हुए हैं. मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय को दो जन-शिकायतें भेजीं, जिन के बारे में स्वचालित कंप्यूटर द्वारा मुझे सूचना दी गयी कि उनका निस्तारण कर दिया गया है, विवरण pgportal.gov.in पर उपलब्ध हैं. मैंने वेबसाइट पर अपना पंजीकरण कराया, फ़ोन और ईमेल वेरीफाई कराये, आदि. इसके बाद भी मुझे वहां कोई सूचना उपलब्ध नहीं हुई. इस स्वचालित कंप्यूटर की देखरेख के लिए एक जन-शिकायत निदेशालय बनाया गया है जिसमें दो IAS अधिकारीयों के अतिरिक्त लगभग दो दर्जन कर्मचारी हैं. मैंने निदेशक एवं जॉइंट सेक्रेटरी को फ़ोन पर संपर्क करने के प्रयास किये किन्तु 11 बजे तक कार्यालय में कोई फ़ोन उठाने वाला भी उपस्थित नहीं था. इस बारे में मैंने प्रधानमंत्री को ही तीसरी शिकायत भेजी, जिसका कोई उत्तर नहीं मिला है. एक सप्ताह व्यतीत होने पर भी कोई सूचना उपलब्ध होने पर मेरा निदेशक से फ़ोन पर संपर्क हुआ, जिसने कहा की में सम्बंधित सेक्शन ऑफिसर से संपर्क करूँ. फिर जॉइंट सेक्रेटरी से संपर्क हुआ तो उसने कहा कि वह बहुत व्यस्त है, इसलिए कोई बात नहीं कर सकती. लगभग एक माह व्यतीत होने पर भी मैं अपनी शिकायतों के बारे में अँधेरे में हूँ. आखिर आधुनिक हिन्दू क्षत्रिय हैं, उत्तर दें भी क्यों.  
कोकोआ एक अत्यंत स्वास्थवर्धक वनस्पतिक उत्पाद है, जो अभी केवल दक्षिणी भारत के चार राज्यों में उगाया जा रहा है, और प्रचारित किया जा रहा है कि यह मूलतः अमेज़न की खाड़ी का वृक्ष है. इसके मूल-नाम theobroma के कारण मेरी धारणा यह है कि इसे वैदिक काल में उत्तरी भारत में उगाया जाता था, क्योंकि theobroma का अर्थ ‘theo’ जाति का भोजन है, एवं theo उस जाति का नाम है जिसने वेदों-शास्त्रों की रचना की थी. यह जाति भारत के पर्वतीय क्षेत्रों से लेकर उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में बसी थी. वे लोग निश्चय ही अमेज़न से अपना भोजन प्राप्त नहीं करते थे एवं उसे यहीं उगाते थे.
देश में कोकोआ के विकास के लिए भारत सरकार का ‘काजू एवं कोकोआ विकास निदेशालय’ कार्यरत है. जिसका मुख्य कार्यालय कोचीन में है. मैंने अपने उक्त तर्क के साथ निदेशक को पत्र लिखा और मुझे शोध हेतु कोकोआ के कुछ पौधे प्राप्त करने के विधान की जानकारी माँगी. किन्तु मुझे १० दिन में भी कोई उत्तर नहीं मिला है. आखिर आधुनिक हिन्दू क्षत्रिय हैं, उत्तर दें भी क्यों.
मुझे अब तो बस इंतजार है, हिन्दू राष्ट्र का शूद्र घोषित होने का.          
असली भारत का धर्म-निरपेक्ष मोर्चा

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

भारत में जन-शिकायत निस्तारण


भारत में जन-समस्याओं की संख्या में वृद्धि होती जा रही है क्योंकि इनके निस्तारण के गंभीर प्रयास न किये जाकर केवल दिखावे पर सार्वजनिक धन का दुरूपयोग किया जा रहा है. सर्वप्रथम हम यह जानें की जन-समस्याएँ उगती कहाँ से हैं. सरकार के निम्नतम स्तर के कर्मचारी जन-साधारण के संपर्क रखने एवं सार्वजनिक कार्यों के निष्पादन हेतु नियुक्त होते हैं. उनके बड़े अधिकारी उनका दिशा-निर्देशन करते हैं किन्तु उनका जन-संपर्क नगण्य होता है. यदि निम्नतम स्तर के कर्मचारी सही मार्गदर्शन में अपना कार्य कुशलता से करते रहें तो जन-समस्याओं के उपस्थित होने की सम्भावना नगण्य हो जाती है. चूंकि इनके मार्गदर्शन में लापरवाही अथवा अधिकारीयों के स्वार्थसिद्धि हेतु होते हैं, इसलिए निम्नतम स्तर के कर्मचारी अपने कर्त्तव्य-निर्वाह में लापरवाही भी करते हैं और भृष्टाचार भी, जिससे जन-समस्याएँ उगती हैं.
जिस स्तर से समस्याएँ उगती हैं, उस स्तर पर अथवा उस स्तर के कर्मियों पर निर्भर होने से जन-समस्याओं के समाधान नहीं हो सकते, केवल इसके प्रदर्शन हो सकते हैं. राज्य और केंद्र सरकारें ऐसा ही कर रही हैं, इसलिए जन-समस्याओं की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है, किसी का कोई समाधान नहीं होता, इसलिए जन-साधारण बुरी तरह हताश एवं परेशान हैं. मैं अपने अनुभवों के कुछ उदाहरणों से इस बिंदु को स्पष्ट करना चाहूँगा.
मेरे ग्राम खंदोई के पूर्व प्रधान ने ग्राम की गलियों में प्रकाश हेतु 15 सौर-प्रकाश स्तम्भ लगवाये थे, जिनकी 5 वर्ष की गारन्टी थी. किन्तु प्रधान ने १ वर्ष के अन्दर ही स्वयं एवं उसके कुछ सहयोगियों ने उन स्तंभों में से अधिकांश की बैटरियां चुरा लीं. इसकी शिकायत मैंने जिलाधिकारी एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री को भेजीं, जिन्होंने उन्हें खंड विकास अधिकारी को एवं उसने एक उप खंड विकास अधिकारी को जांच हेतु भेज दी. उप खंड विकास अधिकारी शिकायत पत्र के साथ दोषी ग्राम प्रधान के पास गया, और कुछ लेन-देन करके शिकायत को नकार दिया गया.
नोट-बंदी के समय मैंने पंजाब नेशनल बैंक के ऊंचागांव शाखा प्रबंधक एवं क्षेत्रीय प्रबंधक की सांठ-गाँठ से कालेधन के नोटों की की गयी अवैध बदली की शिकायत सेंट्रल पब्लिक ग्रिवांस एंड मोनिटरिंग सिस्टम पर की, जिसे उसी बैंक के बुलंदशहर सर्किल ऑफिसर को निस्तारण हेतु भेज दिया गया जब की सर्किल ऑफिसर क्षेत्रीय प्रबंधक के अधीन होता है जिससे क्षेत्रीय प्रबंधक के विरुद्ध कार्यवाही की अपेक्षा नहीं की जा सकती.  
मेरे ग्राम के एक व्यक्ति ने भाजपा के बुलंदशहर जिला पंचायत अध्यक्ष को दावत देकर एवं जातीय सम्बन्ध के कारण अपने घर के लिए कंक्रीट की सड़क बनवाने की स्वीकृति प्राप्त कर ली, जबकि ग्राम के दो अन्य सार्वजनिक रूप से बहूपयोगी मार्ग बहुत बुरी हालत में हैं. इसकी सूचना मिलने पर मैंने इसकी शिकायत २८ दिसम्बर २०१७ को जिलाधिकारी बुलंदशहर से की, जहाँ से इसे मुख्य विकास अधिकारी को एवं वहां से जिला पंचायत के जूनियर इंजिनियर को भेज दिया गया. इसमें कुछ विवेक की आवश्यकता थी कि जिला पंचायत का जे ई अपने अध्यक्ष की इच्छा के विरुद्ध कुछ कर सकता है अथवा नहीं.
मामले की गंभीरता के कारण इसी की दूसरी शिकायत 29/12/2017 को मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय के जनसुनवाई पोर्टल पर की जहाँ से स्वचालित कंप्यूटर द्वारा इसे जिलाधिकारी को भेज दिया गया. जहाँ से शिकायत को खंड विकास अधिकारी को एवं वहां से एक जूनियर इंजिनियर को जांच हेतु भेज दिया गया जो अभी तक वहीँ लंबित है. इसके बाद जिलाधिकारी अथवा खंड विकास अधिकारी को इस से कोई सरोकार नहीं है कि जूनियर इंजिनियर इसपर कुछ करता है अथवा नहीं. खंड विकास कार्यालय में जूनियर इंजिनियर एक अस्थायी संविदाकर्मी है एवं जिला पंचायत अध्यक्ष की तुलना में बहुत छोटे स्तर पर है, इसलिए वह शिकायत के बारे में कुछ भी करने में सक्षम नहीं है. उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने तो शासन-प्रशासन का पूरा कार्य जिलाधिकारियों के ऊपर छोड़ दिया है,  
जन-शिकायतों के सटीक निस्तारण हेतु यह आवश्यक है की उन्हें जनपद स्तर के अधिकारियों से नीचे कदापि न भेजा जाए, उनकी जांच, वांछित कार्यवाही एवं दोषियों को दंड जनपद स्तर पर ही निर्धारित हों. यदि कोई शिकायत जनपद स्तर के अधिकारी के विरुद्ध है तो उसका निस्तारण मंडल स्तर पर किया जाना चाहिए.
केंद्र सरकार जन-शिकायत निदेशालय (पब्लिक ग्रिएवांस डायरेक्टरेट) के माध्यम से अधिकांश शिकायतें प्राप्त करता है जो प्रशासनिक सुधार मंत्रालय के अधीन है. किन्तु मेरा अधोलिखित व्यक्तिगत अनुभव सिद्ध करता है कि इस निदेशालय में प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है.
प्रधानमंत्री को भेजी गयी मेरी जन-शिकायत पंजीकरण संख्या PMOPG/E/2017/0653718 के बारे में मुझे 20/1/2018  को ईमेल पर सूचना दी गयी कि उसका निस्तारण कर दिया गया है जिसका विवरण जानने के लिए मुझे निदेशालय की वेबसाइट पर लॉग इन करने का परामर्श स्वचालित तंत्र द्वारा दिया गया. तदनुसार मेंने दिनांक 20/1/2018 को उक्त वेबसाइट पर पंजीकरण कर अपना मोबाइल एवं ईमेल वेरीफाई कराये. इसके बाद भी वेबसाइट पर मेरी उक्त जन-शिकायत की कोई सूचना उपलब्ध नहीं हुई. इसी वेबसाइट पर मैंने पुनः 23/1/2018 को लॉग इन किया किन्तु मुझे निराशा ही मिली. इसके बाद मैंने लगभग 11 बजे प्रातः निदेशालय से संपर्क हेतु वेबसाइट पर दिए गए निदेशक एवं संयुक्त सचिव के फ़ोन नंबरों क्रमशः 23742536 एवं 23741006 पर संपर्क के प्रयास किये किन्तु किसी ने फ़ोन नहीं उठाया. इससे सिद्ध होता है कि जन-शिकायतों के नाम पर देश के परिश्रमी वर्ग की कमाई को बड़े-बड़े ऐसे अधिकारीयों के वेतन-भत्तों एवं अकूत सुख-सुविधाओं आदि में बहाया जा रहा है, जो अपने कार्यालयों में आना भी उचित नहीं समझते. देश डूब रहा है, सरकार दिवास्वप्न में लीन है.
इस प्रकार मैं पाता हूँ कि जन-समस्याओं के निस्तारण में किसी अधिकारी की कोई रूचि नहीं है, बस शिकायत-पत्रों को अपनी-अपनी मेजों से दूर फेंकने को ही अपना कर्तव्यपालन समझे बैठे हैं. भृष्टाचार एवं अनियमितताओं के विरुद्ध जन-शिकायते लोगों के जागरूक होने की लक्षण हैं, साथ ही शासन-प्रशासन द्वारा इनकी अव्हेलना लोकतंत्र-विरोधी है, देश में स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए यह अत्यावश्यक है की जन-शिकायतों का शासन-प्रशासन द्वारा समयबद्ध एवं समुचित निस्तारण हो.
इंजिनियर राम बन्सल
सुपुत्र स्वतन्त्रता सेनानी स्व० श्री करन लाल 
ग्राम खंदोई, जनपद बुलंदशहर, उ० प्र० 

शनिवार, 30 मई 2015

स्वतंत्र भारत में उपनिवेशवाद


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मंगलवार, 12 मई 2015

सार्वजनिक दर्पण में केंद्रीय सरकार का एक वर्ष


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मंगलवार, 24 मार्च 2015

भारत में लोकतंत्र की आड़ में साम्राज्यवादी शासन


अब से लगभग 2600  वर्ष पूर्व ग्रीस के नगर एथेन्स में डेमोक्रिटस नामक विद्वान द्वारा विश्व का प्रथम  लोकतंत्र स्थापित किया गया, जिसमें सभी नागरिकों को नगर राज्य व्यवस्था में सम्मान अधिकार दिए गए थे।  मतान्तर होने पर बहुमत के आधार पर व्यवस्थात्मक निर्णय लिए जाते थे, जिसका अर्थ 50 प्रतिशत से अधिक  मत प्राप्त करना किसी निर्णय के लिए अनिवार्य होता है। अतः लोकतंत्र का अर्थ सार्वजनिक साधनों के लोकहित में उपयोग हेतु व्यवस्था करना है, न कि लोगों पर शासन करना।
तत्कालीन साम्राज्यवादी प्लेटो तथा उसके शिष्य अरिस्तू ने लोकतंत्र का घोर विरोध किया, एथेंस पर मकदूनिया के राजा फिलिप से आक्रमण करा नगर राज्य व्यवस्था को नष्ट कराया, और डेमोक्रिटस द्वारा रचित समस्त लोकतंत्रीय साहित्य को नष्ट करा दिया। साम्राज्यवादियों के अनुसार कुछ व्यक्ति ही शासन हेतु योग्य होते हैं जिनका निर्धारण ईश्वर द्वारा किया गया होता है। शेष जनसामान्य इन शासकों के वैभव-भोगों हेतु  पशुवत श्रम करने के निमित्त होते हैं।
यद्यपि अब तक अनेक प्रकार के शासन तंत्र माने जाने लगे हैं, किन्तु इन सभी के मूल में  शासकों की दो  प्रकार की मानसिकता ही पाई जाती है – शासितों के लिए शोषणपरक अथवा समानतापरक, जिन्हें क्रमशः लोकतांत्रिक तथा साम्राज्यतंत्री ही कहा जाएगा। शोषणपरक शासन में कुछ अन्य सामान्य लक्षण भी पाये जाते हैं, जिनपर इसी आलेख में आगे विचार किया जाएगा।
घटकीय राजनीति
1947 में स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतंत्र के नाम पर जो शासन व्यवस्था स्थापित की गयी , वह लोकतंत्रीय कदापि नहीं है। क्योंकि इसमें शासक वर्ग चुना जाता है, न कि व्यवस्थापक। इन चुनावों में विजित होने के लिए 50 प्रतिशत मत प्राप्त करने की अनिवार्यता नहीं है, केवल सर्वाधिक मत प्राप्त करना पर्याप्त होता है। इस कारण से भारत में शासन हेतु चुने गए व्यक्ति औसतन 30 प्रतिशत मत प्राप्त करके ही यह अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उनके चयन में 70 प्रतिशत मतदाताओं की अवहेलना होती रही है। ऐसे तथाकथित जनप्रतिनिधि चुने जाने के पश्चात केवल अपने मतदाताओं के हित-साधन के लिए शेष 70 प्रतिशत लोगों के हितों की बलि देते रहते हैं। इंदिरा गांधी द्वारा रायबरेली का विकास, मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने ग्राम सैफई का विकास, मायावती द्वारा अपने ग्राम बादलपुर का विकास, और अब नरेंद्र मोदी द्वारा वाराणसी विकास पर विशेष बल, आदि इसी प्रवृति के उदहारण हैं। ये लोकतंत्र के विपरीत लक्षण हैं।
इस अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का विशेष कारण यह है कि राजनीति में राष्ट्र-नायक होने योग्य व्यक्तियों का अभाव है, केवल क्षेत्रीय, जातीय, सम्प्रदायी व्यक्ति ही सत्ता के उलटफेर में लगे हुए हैं। ये घटकीय राजनेता येन-केन-प्रकारेण अपने चयनित व्यक्ति-समूहों से विजय योग्य मत प्राप्त कर लेते हैं और राजनैतिक सत्ता पर अधिकार पा लेते हैं। ऐसे घटकीय राजनेता देश का सर्वांगीण विकास नहीं कर सकते, इनकी सोच केवल अपने घटक समर्थकों तक ही सीमित रहती है।
धार्मिक राजनीति
जैसा की ऊपर कहा जा चुका है कि साम्राज्यवादी इस मान्यता के समर्थक होते हैं कि उनका शासन का अधिकार ईश्वर प्रदत्त होता है। इसको पुष्ट करने के लिए वे अपने राजनैतिक दांवपेंचों में किसी न किसी तरह  ईश्वर की खोखली परिकल्पना के संवाहक धर्म्म का आश्रय अवश्य लेते हैं और उस धर्म के ब्राह्मण समाज को अपने साथ रखते हैं, जो जनसामान्य को भ्रमित कर ठगने में सिद्धहस्त होता है।  इनके माध्यम से वे जनसामान्य पर राजनैतिक शासन से पूर्व अपना मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित करते हैं।
यहाँ धर्म एवं धर्म्म का अंतर स्पष्ट करना वांछनीय है। वैदिक साहित्य में धर्म शब्द का उपयोग किसी वस्तु अथवा व्यक्ति द्वारा धारण करने योग्य गुणों के लिए किया गया, जिसमें मानवीय नैतिक मर्यादाएँ भी सम्मिलित हैं। इस शब्द का दुरूपयोग करते हुए वैदिक विद्वानों के शत्रुओं ने, जिनमें प्रमुखतः असुर  कहा जाता है,‘धर्म’ शब्द का अर्थ काल्पनिक भगवान के संवाहक पाखंडों प्रचारित किया। अतः बाद के वैदिक साहित्य  में नैतिक मर्यादाओं के लिए ‘धर्म’ और पाखंडों के लिए ‘धर्म्म’ शब्द का उपयोग किया गया। उपरोक्त प्रसंग में धर्म एवं धर्म्म का उपयोग इसी वैदिक प्रावधान के अनुसार किया गया है।
पारिवारिक राजनीति
साम्राज्यवादियों का दूसरा सामान्य लक्षण यह होता है कि ये राजनैतिक  सत्ता पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए अधिक से अधिक राजनैतिक पदों पर अपने ही परिवार के सदस्यों को आसीन करते हैं। इसके पीछे इनकी वह परिकल्पना भी सक्रिय रहती है कि वे और उनके परिवार के सदस्य ही राजसत्ता के अधिकारी  के रूप में ईश्वर द्वारा चयनित हैं। शेष जनसमुदाय को ये लोग राजसत्ता के लिए अयोग्य एवं पशुतुल्य शोषण हेतु निर्मित मानते हैं।
संसाधनों का केंद्रीकरण
साम्राज्यवादी कदापि यह नहीं चाहते कि जनसामान्य को राष्ट्र के संसाधनों में भागीदारी मिले। इसे प्रतिबंधित करने के लिए वे सार्वजनिक संसाधनों का अधिकाधिक केन्द्रीयकरण कर अपने अधिकार में रखते हैं।  स्वयं को लोकहितैषी दर्शाने के लिए वे इन  में से यदा-कदा कुछ टुकड़े लोगों की और फेंकते रहते हैं जिन्हें वे समाज कल्याण योजनाएं कहते हैं और इनके माध्यम से लोगों में भिखारी की मानसिकता विकसित करते रहते हैं ताकि लोग उनकी दयादृष्टि की आशा बनाये रखें। इस भिक्षा का उपयोग वे निर्धन एवं अशिक्षित लोगों  के मत बटोरने के लिए प्रयोग करते हैं। लोग नहीं जान पाते कि जो कुछ उन्हें समाज कल्याण के नाम पर दिया जा रहा है वह उन्हीं की सम्पदा का अल्पांश है। सच्चा लोकतंत्र सार्वजनिक संसाधनों के विकेंद्रीकरण का पक्षधर होता है।
दोष निवारण उपाय
स्वतंत्र भारत के अधिकाँश सत्तासीन राजनेताओं में उपरोक्त सभी लक्षण पाये जाते रहे हैं जो उनके साम्राज्यवादी होने की पुष्टि करते हैं। ये  कदापि यह नहीं चाहेंगे कि देश में सच्ची लोकतंत्रीय व्यवस्था स्थापित हो।
उपरोक्त दोषों का निवारण तभी संभव है जब चुनाव में विजय हेतु 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करना अनिवार्य हो।  इस एक मात्र प्रावधान से घटकीय राजनेता सत्ता के गलियारों से स्वतः ही बाहर हो जायेंगे, जिनके स्थान पर सक्षम एवं समग्र राष्ट्रवादी नेतृत्व उभरेगा। वर्त्तमान स्थिति में ये घटकीय राजनेता अपने भृष्ट आचरणों से  लोकतंत्र को दूषित किये रहते हैं, जिसके कारण अच्छे लोग राजनीति से दूरी बनाये रखते हैं। घटकीय नेतृत्व कदापि लोकतांत्रिक नहीं हो सकता, अपितु साम्राज्यवादी होता है।

वैदिक एवं आसुरी धार्मिक संस्कृत

अब से लगभग 2700 वर्ष पूर्व देव विद्वानों ने भारतीय उपमहाद्वीप को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की संकल्पना की थी। उन्होंने इस क्षेत्र को विश्व में सर्वाधिक सम्पन्न  ही नहीं बनाया था अपितु इस क्षेत्र को विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि – देवनागरी, भी दी जो जनसामान्य को लिखित संवाद की सुविधा प्रदान करने के साथ-साथ देवों को अपने अनुभव सूत्र रूप में सुरक्षित करने में भी उपयोगी सिद्ध हुई थी। इस लिपि के माध्यम से एक ही पाठ्य में विविध विषयों से सम्बद्ध अनेक अर्थ समाहित किये जा सकते हैं जिन्हें गुप्त भी रखा जा सकता है ताकि शत्रु इन्हें न समझ सकें किन्तु समधर्मी लोग इन अर्थों को प्राप्त कर सकें।
देवों का नेतृत्व पुरूरवा के दो युगलों में उत्पन्न चार पुत्र ब्रह्मा तथा राम, एवं विष्णु तथा लक्ष्मण कर रहे थे।  जिनकी प्राथमिकता लोगों को स्वस्थ रखना थी ताकि वे स्वावलम्बी बन क्षेत्र के विकास में अपना भरपूर योगदान दे सकें। इसके लिए उन्होंने विश्व के प्रथम स्वास्थ-विज्ञान आयुर्वेद की स्थापना की और उस पर वृहद साहित्य तैयार किया।
साम्राज्यवाद
क्षेत्र की सम्पन्नता से लालायित होकर अनेक जंगली जातियां, यथा यदु, असुर, द्रविड़, रावण, एवं, आदि भी यहां आईं जो यहां के लोगो पर अपना शासन स्थापित कर उनके परिश्रम से प्राप्त सम्पदा पर वैभव भोग कर सकें। यही उनके द्वारा प्रोन्नत साम्राज्यवादी शासन का लक्ष्य होता है जिसमें लोगों को समस्याग्रस्त रखकर उन्हें परावलम्बी बनाया जाता है तथा उनसे पशुतुल्य श्रम कराया जाता है। सुविधा के लिए ये सभी जातियां असुर रूप में ही संगठित हुई जिनका नेतृत्व एक यदुवंशी के हाथ में था।  साम्राज्यवादी शासन सदैव किसी धर्म् के पाखण्ड द्वारा लोगों में हीन भावना विकसित कर उनपर राजनैतिक शासन स्थापित करने से पहले मनोवैज्ञानिक शासन स्थापित किया जाता है।
वैदिक संस्कृत
चूंकि स्वस्थ, सम्पन्न एवं स्वावलम्बी लोगों पर शासन और उनका शोषण करना दुष्कर होता है, इसलिए शासन-लोलुप जातियां देवों द्वारा रचित स्वास्थ-परक साहित्य को नष्ट कर देतीं थीं। अतः भारत भूमि पर असुरों के आगमन के पश्चात इस प्रकार का साहित्य रचा गया जो बाह्य रूप में असुर समर्थक प्रतीत होता है किन्तु गूढ़ रूप में लोक-हितकारी अर्थ रखता है। इस प्रकार का देव साहित्य अपने गुप्त लेखन के कारण आज तक सुरक्षित है जिसके अंतिम पड़ाव विष्णु-पुराण, भावप्रकाश तथा अर्थशास्त्र हैं।
वर्तमान सन्दर्भ में इस प्रकार के साहित्य की भाषा को ही वैदिक संस्कृत कहा जाता है जिसमें प्रत्येक वर्ण तथा उसपर अंकित चिन्हों के रहस्यात्मक अर्थ होते हैं। इस प्रकार के बहुअर्थी लेखन के अर्थ पाना दुष्कर होता है, जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि विगत 2000 वर्षों में यह साहित्य उपलब्ध होने पर भी सही अनुवादित  नहीं किया गया। इस लेखक ने वैदिक संस्कृत के शोध पर अपने जीवन के २२ वर्ष लगाए है, तब जाकर इसके रहस्यात्मक अर्थों को समझने में सफलता पायी है, जिसके आधार पर वैदिक ग्रन्थ भावप्रकाश का  अनुवाद आरम्भ किया गया है।
धार्मिक संस्कृत
वैदिक साहित्य के सही अनुवाद न होने का एक कारण इसका दुष्कर होना अवश्य है, किन्तु इसका प्रमुख कारण  धर्मावलम्बी साम्राज्यवादियों द्वारा एक अन्य संस्कृत का प्रचलन किया जाना रहा जिसमें वैदिक शब्दावली का ही उपयोग किन्तु भिन्न अर्थों के साथ किया जाता है। इस भाषा में वैदिक साहित्य के विकृत अर्थ प्रकाशित एवं बहुप्रचारित किये गए जिससे लोग वैदिक साहित्य को भी धर्म-समर्थक मानने लगे जबकि वैदिक मत एवं साहित्य पूर्णतः वैज्ञानिक रूप में किये गए परिश्रम के माध्यम से प्रगति के पक्षधर हैं। धार्मिक संस्कृत का प्रतिपादक एवं प्रथम इस भाषा का प्रथम लेखक शंकर था जो मूलतः असुर था। इसी ने ऐसा वृहद साहित्य रचा जो वैदिक साहित्य के दूषित अर्थ प्रतिपादित करता रहा है तथा जिसके कारण वैदिक साहित्य के सही अर्थ पाने के गंभीर प्रयास नहीं हुए।
ब्राह्मणवाद
यद्यपि भारत भूमि पर प्रथम धर्म् यदुवंशियों द्वारा लाया गया यहूदी धर्म् था, किन्तु यहां बहुप्रचारित धर्म् शंकर द्वारा प्रतिपादित सनातन धर्म् तथा सिद्धार्थ द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म् रहे। इसी सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध की पत्नि अहिल्या को छल कर उसे गर्भवती किया था जिसके कारण उसे उसके पिता शाक्य सिंह ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। इसके बाद वह कृष्ण का सहयोगी बन श्रीलंका द्वीप पर बस गया था। धार्मिक सिद्धांत की दृष्टि से शंकर एवं सिद्धार्थ परस्पर विरोधी क्रमशः ईश्वरवादी एवं अनीश्वरवादी थे , तथापि दोनों साम्राज्यवादी होने के कारण देवा विरोधी थे और कृष्ण के सहयोगी थे।
सनातन धर्म् के प्रचार के लिए शंकर ने प्रसिद्ध आतंकवादी एवं स्त्री अपहरणकर्त्ता रावणों का सहयोग लिया जिनके अपहृत स्त्रियों से उत्पन्न अवैध पुत्र ब्राह्मण कहलाये। इसी कारण से आधुनिक ब्राह्मण भी रावण को विद्वान के रूप में प्रचारित करते हैं। शंकर के मार्गदर्शन में ये ही धर्म् के प्रमुख प्रचारक के रूप में स्थापित हुए। यहूदी और सनातनधर्मी ही बाद में हिन्दू कहलाये।
संस्कृत की उपयोगिता
आधुनिक काल में धार्मिक संस्कृत का उपयोग केवल भृष्ट धार्मिक साहित्य के अर्थ पाने के लिए ही किया जा सकता है, जिससे समाज का अहित ही होगा । अन्यथा इसके आधार पर किसी युवा के भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। वैदिक संस्कृत का उपयोग भी प्रमुखतः वैदिक साहित्य के अनुवाद में ही किया जा सकता है जिससे मानव समाज को बहुविध लाभ होगा, विशेषकर इस भाषा में लिखित आयुर्वेद द्वारा जिसमें मनुष्य जाति को 500 वर्ष स्वस्थ जीवन प्रदान करने की सामर्थ्य निहित है।  इसी कारण से वैदिक विद्वानों ने इस ज्ञान  से  मानव-शत्रु असुरों को अनभिज्ञ रखने का निर्देश दिया है।

सोमवार, 9 जून 2014

गंगा प्रदूषण और समाधान

मोदी सरकार के मंत्रियों एवं सचिवों ने गंगा शुद्धिकरण के लिए समय की उलटी गंगा बहाने की योजना बनाई है, जिसके अंतर्गत गंगा तटों पर नए नगर और और व्यावसायिक केंद्र खोले जायेंगे जैसा कि प्राचीन काल में जल की सहज उपलब्धता के लिए किया जाता था। यह योजना एक कुशल व्यवसायी मंत्री नितिन गडकरी की अध्यक्षता में बनी है, जिसके अंतर्गत गंगा को व्यवसाय के साधन के रूप में परिवर्तित किया जायेगा। इसी सन्दर्भ में मैं आज जब इंटरनेट पर गंगा-स्नान के चित्र खोज रहा था तब मुझे अनेक विदेशी वेबसाइट दिखाई दीं जिनमें गंगा में स्नान करती  हुई नग्न एवं अर्धनग्न भारतीय महिलाओं के चित्र कामुक लोगों को परोसे गए हैं। भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाली सरकार इसी कामुक व्यवसाय को गंगा तट पर पर्यटक स्थलों के निर्माण से प्रोन्नत करेगी जिसके लिए गंगा शुद्धिकरण को एक बहाने के रूप में उपयोग किया जायेगा।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

वैदिक शास्त्र भावप्रकाश में आयुर्वेद एवं इतिहास एवं भूगोल

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गुरुवार, 24 मई 2012

स्वतन्त्रता सैनानी द्वार , खंदोई - अभिकल्पना



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स्वतन्त्रता सैनानी  द्वार , खंदोई 

bl }kj dh fLFkfr ij ekxZ dh [kqyh pkSM+kbZ 29 QhV rFkk ÅWapkbZ 20 QhV jgsxhA nksuksa vksj bZV dh nhokjksa rFkk LVhy&;qDr dadzhV ds LrEHkksa dh lqn`< ,oa vkd’kZd lajpuk,Wa gksaxh] ftuds Åij 30 bap eksVkbZ dh LVhy&;qDr dzdzhV dh che gksxhA bl izdkj Åij 14 QhV pkSM+k rFkk 40 QhV yEck LFky miyC/k gksxk] ftl ij ,d iqLrdky; d{k rFkk ,d vfrfFk d{k dk fuekZ.k fd;k tk;sxkA bu d{kksa ds Åij ns”kHkfDr rFkk LorU=rk laxzke ls lEc) fo”kky izfrek leqP; dh LFkkiuk dh tk;saxhA
mijksDr izfrek ds vfHkdYi esa iz;kl ;g fd;k tk;sxk fd mlesa ns”k ds xkSjoiw.kZ bfrgkl] thoUr laLd`fr vkSj vVwV ns”kHkfDr dk lekos”k gks rkfd ;g }kj gtkjksa o’kZ rd nwj&nwj rd ds Hkkjr ds ukxfjdksa esa ^oUns ekrje~* dk izsjd cua jk’V~h; psruk ds efUnj ds :i esa tkuk tkrk jgsA

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गुरुवार, 3 मई 2012

राष्ट्रपति कौन बने इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि केसा व्यक्ति बने


एक और सामयिक आलेख हमारे अतिथि विचारक द्वारा 
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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

भारतीय विचारकों के दृष्टिकोण - भाग एक

श्री जगदीश गाँधी 

डॉ जगदीश गाँधी लखनऊ नगर के सुप्रसिद्ध एवं कर्मठ शिक्षाविद हैं. नगर का सर्वश्रेष्ठ  विद्यालय  'सिटी मोंटेसरी स्कूल' उनकी कर्मठता का जीवंत प्रतीक है. आज ही उनका एक  पत्र प्राप्त हुआ है जिसके साथ उन्होंने अपना एक सुविचारित आलेख 'परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं' भी प्रकाशनार्थ संलग्न किया है. यद्यपि मैं आलेख में उल्लिखित उनके अनेक दृष्टिकोणों से सहमत नहीं हूँ, तथापि उनका आलेख इतना विचारोत्तेजक है कि उस की अवहेलना नहीं की जा सकती. साथ ही उनके विचारों को बिना अपनी टिप्पणी के प्रकाशित करना भी मेरे लिए संभव नहीं है. आलेख में जो विचारबिन्दु उन्होंने प्रस्तुत किये हैं, उनका विरोध किया जाना भी उतना ही तर्क विसंगत है जितना कि उनकी अवहेलना करना. अतः, उन पर वृहत विचार विमर्श की आवश्यकता है. इसी आशय से में उनके आलेख को यहाँ दो भागों में बिन्दुवार प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनपर विचार विमर्श हेतु मेरी टिप्पणियां भी संलग्न हैं. 

प्रस्तुत है इस श्रंखला का भाग एक -  

परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएँ बनाएं   

(१) परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छाएं बनाएं : -
हमें परमात्मा की इच्छाओं को ही अपनी इच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए. रावण ने अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ती के लिए जीवन-पर्यंत पूजा-पाठ किया और अंत में विनाश को प्राप्त हुआ. राम ने परमात्मा की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीवन जिया और वे राजा राम से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम बन गए. हमारा मानना है कि समाज सेवा के प्रत्येक कार्य को भगवन का कार्य मानकर करना ही जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है. नौकरी या व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया जा सकता है. जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने अपने एक भाषण में बहुत ही प्रेरणादायी बात कही, "अगर किसी को सड़क साफ़ करने का काम दिया जाए तो सफाई ऐसी करनी चाहिए जैसे महान चित्रकार माइकल अन्जेलो पेंटिंग कर रहा हो, जैसे विश्वविख्यात संगीतकार बीथोविन संगीत रचना में जुटे हों या शेक्सपिअर कोई कविता लिख रहे हों". काम कोई हो उसे ईश्वर की भक्ति और समाज सेवा की भावना के साथ करने से खुशी मिलती है और विनम्रता हासिल होती है. इसलिए हमें अपने प्रत्येक कार्य को पूरे मनोयोग तथा उत्साह से करना चाहिए.  

मेरी टिप्पणी : 
परमात्मा एक कल्पना मात्र है, जिसका उद्द्येश्य भोली-भाली मानवता को उसके नाम पर आतंकित कर उसका शोषण और उसपर शासन करना है. मानवता का इतिहास यही सिद्ध करता है. रावण वंश एक दानव वंश था जिसके दस सदस्य भारत में आ  बसे थे और यहाँ नारियों का उत्पीडन कर रहे थे. उनके vanshaj ही उसे एक विद्वान् बता रहे हैं, जो एक भ्रान्ति है. राम वस्तुतः महान पुरुष थे जिन्होंने अपना जीवन लोक कल्याण को समर्पित किया हुआ था.  मानवता के शत्रुओं ने उनकी हत्या की थी.  श्री गाँधी के अन्य विचार सराहनीय एवं अनुकरणीय हैं.    

(२) हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं : -
अपने सकारात्मक विचारों तथा ऊर्जा को ईमानदारी से और बिना थके हुए समाज क़ी भलाई के कार्यों में लगाना चाहिए. इस  प्रयास से अपरिमित सफलता हमारे कदमों में होगी. पवित्र गीता की सीख है कि "हम अपने कार्यों के परिणाम का निर्णय करने वाले कौन हैं? यह तो भगवान् का कार्यक्षेत्र है. हम तो एक मात्र कर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं. 

मेरी टिप्पणी : 
गीता निश्चित रूप से महान ज्ञान का स्रोत है. किन्तु isakee  भाषा वैदिक संस्कृत है जिसके बारे में किसी को भी पूर्ण ज्ञान नहीं है. इतना सुनिश्चित है कि वैदिक संस्कृत आधुनिक संस्कृत से sarvatha भिन्न भाषा है जिसके sabdaarth भी sarvathaa भिन्न हैं. श्री अरविन्द तथा मेरे शोधों के अनुसार इस भाषा के शब्दार्थ तत्कालीन विकसित भाषाओं लैटिन तथा ग्रीक शब्दार्थों से अनुप्रेरित हैं. अतः गीता का ज्ञान अभी अज्ञात है. 

हम ही कर्म करते हैं, और उसे लक्ष्य के अनुसार सफलता के लिए ही करते हैं, किन्तु परिणाम कर्म निष्पादन की श्रेष्ठता, सामाजिक एवं प्राकृतिक परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं. इसलिए ये पूरी तरह कर्ता के अधीन नहीं होते.  

(३) हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है : -
हमारा प्राव्हीन ज्ञान एक अनूठा संसाधन है, क्योंकि उसमें लगभग पांच हज़ार वर्षों की सभ्यता का भण्डार है. राष्ट्रीय कल्याण तथा विश्व के मानचित्र पर देश के लिए एक सही स्थान बनाने के लिए इस संपदा का लाभ उठाना जरूरी है. हमारी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान विश्व के सभी देशों में अनूठा है. भारत की असली पहचान उसका आध्यात्मिक ज्ञान है. भारत को विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्वा के लिए आगे आना चाहिए. 

मेरी टिप्पणी : 
भारत में कोई संस्कृति न होकर केवल विकृतिया हैं, जिनको समाज कंटकों ने अपने निहित स्वार्थों के पोषण और निरीह जनमानस के शोषण  के लिए समाज में स्थापित किया है. जो कर्मशील सभ्यता यहाँ राम आदि ने विकसित की थी उसे लगभग १६०० वर्षों की गुलामी ने पूरी तरह नष्ट-भृष्ट कर दिया है. अब समाज में केवल बुद्धिहीनता व्याप्त है और धर्म इसका सतत पोषण करते रहे हैं. जो मानवता बिना किसी प्रतिरोध के १६०० वर्ष गुलाम रही हो, जिसपर चन्द चोर-लुटेरे शासन करने में सफल रहे हों, उसे अपनी संस्कृति, आचरण और सभ्यता पर पुनः विचार करना चाहिए और उसमें आमूल -चूल  परिवर्तन  करने चाहिए.

भारत की जनता लम्बी गुलामी के कारण अभी भी लोकतंत्र के योग्य नहीं है. इस कारण से स्वतन्त्रता के बाद भी यहाँ कुशल शासन व्यवस्था स्थापित न होकर केवल चोर-लुटेरों के शासन स्थापित होते रहे हैं. सामाजिक विसंगतियां, घोर भृष्टाचार, चारित्रिक पतन आदि विकृतियाँ जिस संविधान के अंतर्गत  विकसित हो रही हों, वह संविधान कचरे के ढेर में फैंक दिया जाना चाहिए. 

(४) ज्ञान हमको महान बनाता है : -
हमें किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए आदमी उत्साह और तथा विफलताओं का सामना करने और उनसे सीखने के साहस की आवश्यकता होती है. अध्ययन से स्रजनात्मकता आती है. स्रजनात्मकता  विचारों को आगे बढाती है. विचारों से ज्ञानवर्धन होता है और हमको महान बनाता है. 

मेरी टिप्पणी : 
श्री गाँधी के उपरोक्त विचार सराहनीय हैं, विशेष रूप से 'लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होने के लिए ...' जो गीता के ज्ञान को खुली चुनौती देते हैं. 

(५) विश्व एकता की शिक्षा की इस युग में सर्वाधिक आवश्यकता है : -
विश्व किसी व्यक्ति, संगठन और दल कि तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है. पारिवारिक एकता विश्व एकता की आधारशिला है. इस युग में विश्व एकता की सर्वाधिक आवश्यकता है. विश्व की एक सशक्त न्यायपूर्ण व्यवस्था तभी बनेगी जब प्रत्येक महिला और पुरुष अपनी बेहतरीन योग्यताओं और क्षमताओं के साथ योगदान देगा.

मेरी टिप्पणी : 
मैं श्री जगदीश गाँधी के इस विचार से पूर्णतः सहमत हूँ. 

मैं, राम बंसल 
(६) भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा  : -
एक देश केवल कुछ लोगों के महान होने से महान नहीं बनता, बल्कि इसलिए महान बनता है कि उस देश में हर कोई महान होता है. हमारे देश के सौ करोड़ प्रज्वलित मस्तिष्कों की शक्ति, इस धरती के नीचे, धरती के ऊपर और धरती पर स्थित संसाधनों की शक्ति से अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा शक्तिशाली है. इसलिए भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा. 

मेरी टिप्पणी :
निश्चित रूप से मानव मस्तिष्क की शक्ति विश्व के अन्य सभी संसाधनों से अधिक शक्तिशाली होती है. किन्तु भारत की इस शक्ति का उपयोग केवल विदेशों में ही हो रही है जहां भारतीय सस्ते मजदूरों के रूप में प्रसिद्ध हैं क्योंकि वर्तमान भारतीय व्यवस्था में उनके लिए कोई स्थान नहीं है. इसलिए विश्व में भारत को कोई सम्मानित  स्थान प्राप्त नहीं है और नहीं हम सुधार के लिए कुछ कर रहे हैं. 

..... शेष भाग दो में.