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रविवार, 29 मार्च 2015

उत्तर प्रदेश में यादव-राज ने की बेशर्मी की सब सीमाएं पार

पिछले 3 वर्ष के यादव राज में उत्तर प्रदेश भारत का सर्वाधिक पिछड़ा राज्य बन गया है।  बेरोजगारी और भृष्टाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। बिजली की उपलब्धि सतत निराशाजनक बनी हुई है।  ग्रामीण क्षेत्रों बिजली घोषित 12 घंटे के स्थान पर औसतन 6 घंटे प्रतिदिन ही दी जा रही है।  प्रदेश में बिजली का कोई विशेष संकट नहीं है, केवल कुव्यवस्था है। प्रशासक विशाल स्तर पर बिजली की चोरी करवा रहे हैं जिससे ईमानदार उपभोक्ताओं के लिए बिजली की उपलब्धि सीमित ही बनी रहती है, जबकि उनको प्रदत्त बिजली की दरें बार-बार बढ़ाई जा रहीं हैं। बिजली की कुव्यवस्था के कारण स्थापित उद्योग-धंधे ठप पड़े हैं, और नए लग नहीं रहे हैं।  इससे बेरोजगारी बढ़ रही है। लोगों को मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ रहा है।
सरकार के भृष्ट कार्य-कलापों में बार- बार उच्च न्यायालय को दखल देना पड़ रहा है, जिसके बाद भी बेशर्म शासक-प्रशासक अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहे हैं। अभी चल रही पुलिस भर्ती प्रक्रियाओं पर न्यायालय को रोक लगानी पडी  क्योंकि भर्ती में विशाल स्तर पर धांधली पाई गयी है, जिसकी जांच न्यायालय द्वारा की जा रही है। ईमानदार बेरोजगार युवकों को बार-बार संघर्ष करना एवं निराश होना पड़ रहा है जबकि बेईमान पदासीन किये जा रहे हैं।
प्रदेश के एक यादव चीफ इंजीनियर ने अपने भृष्ट आचरण से 1000 करोड़ की संपत्ति एकत्र कर ली है, तथापि शासक वर्ग स्पष्ट कारणों से उसे बचाने के प्रयास में लगा है। प्रदेश के एक पूर्व मंत्री ने केवल 30 महीने में 1000 करोड़ की सम्पदाएँ बना लीं, उसके विरुद्ध कार्यवाही में भी लापरवाही की जा रही है।
प्रदेश में शीर्ष स-मा-ज-वा-द का लबादा ओढ़े नेता 100000 लोगों को दावत देते हैं  जिसमें 900000 का सूट पहनने वाले प्रधान-मंत्री भी सम्मिलित होते हैं। अतः स्पष्ट है सब राजनेता मिलकर लूट में लगे हैं।

प्रदेश में आज भी लोग 2000 रुपये प्रतिमाह पर मजदूरी करने के लिए  विवश हैं। इस कुव्यवस्था के लिए जहाँ शासक-प्रशासक सक्रिय रूप में उत्तरदायी हैं, पूरा विधायक मंडल भी अपनी निष्क्रियता के कारण उत्तरदायी है। इस पर भी शासन ने विधायकों के वेतन-भत्ते 55000 से बढ़ा कर 99000 रुपये प्रतिमाह कर दिए गए, जिसका सभी विधायकों ने समर्थन किया। अब उनकी मांग है कि उनकी विकास-निधि में भी वृद्धि की जाये।
भारत के योजना आयोग के अनुसार एक परिवार के जीवन-यापन के लिए 28 रुपये प्रतिदिन पर्याप्त हैं।  जिसका अर्थ यह हुआ कि अब उत्तर प्रदेश प्रत्येक विधायक 116 परिवारों के भरण-पोषण को अकेला ही डाकरेगा। चूंकि यह संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप है, अतः भारत का संविधान भी इसके लिए दोषी है, जिसका कोई वैधानिक निराकरण संभव नहीं है। अतः त्रस्त लोगों के लिए दो ही विकल्प हैं - सब कुछ सहते रहें, अथवा भृष्ट व्यवस्था के विरुद्ध अवैधानिक कार्यवाही करने का साहस करें, जैसा कि नक्सलवादी करते रहे हैं, किन्तु वे निशाना गलत चुनते हैं।

शुक्रवार, 20 जून 2014

श्रीमान प्रधानमंत्री जी

आपके प्रधान मंत्री बनने को लगभग एक माह होने जा रहा है, किन्तु महंगाई, भृष्टाचार, बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दों पर अभी तक सरकार ने अपनी इच्छाशक्ति भी नहीं दर्शाई है। सवा करोड़ भारतीयों के जीवन जीवन स्तर में सुधार तो बहुत दूर की बात है। गंगा की स्वच्छता योजना और काले धन पर जाँच दल जैसे बड़े लोगों के वैभवशाली कदम तो पूर्व की सरकारों ने भी उठाये थे जिन पर गरीब भारतीयों की गाढ़े पसीने की कमाई के हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला। अब कुछ सकारात्मक होगा इसके कोई आसार नहीं लगते।

शनिवार, 7 जून 2014

उत्तर प्रदेश की आवश्यकता - कुशल नेतृत्व

उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से ऐसे कुशल नेतृत्व का अभाव रहा है जो प्रदेश के लोगों के विकास की आवश्यकताओं और दिशा को समझ सके। श्री चन्द्र भान गुप्त के बाद के सभी मुख्य मंत्री वैभव भोग, स्वयं के परिवार अथवा ग्राम की प्रगति अथवा अपना समय व्यतीत करते रहने में रूचि रखते रहे हैं। इसके कारण पर्याप्त साधन संपन्न होने पर भी प्रदेश देश के पिछड़े राज्यों में गिना जाता रहा है।

बुधवार, 4 जून 2014

उत्तर प्रदेश का विद्युत संकट

विद्युत शक्ति आधुनिक मानव की जीवन-रेखा है. इसका अभाव जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है. यही उत्तर प्रदेश में होता रहा है. अतः यहां लोग भरपूर जीवन नहीं  रहे, बस अपना जीवन-काल व्यतीत कर रहे  हैं. इसमें शासन का दोष तो है ही लोग भी कम दोषी नहीं हैं. प्रदेश का विद्युत संकट यहां के लोगों के सुख एवं सम्पन्नता से ही सम्बन्ध नहीं रखता, अपितु उनकी मानसिकता एवं चरित्र  भी गहन सम्बन्ध रखता है. अतः विद्युत संकट के आर्थिक, सामाजिक  और राजनैतिक तीनों पक्ष हैं।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

उत्तर प्रदेश की राजनैतिक हलचल

 उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव लगभग १४ महीने दूर रह गए हैं, इसलिए राजनैतिक दलों और संभावित प्रत्याशियों ने अपनी तैयारियां आरम्भ कर दी हैं. प्रत्याशियों की घोषणा में बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे रहती है जिससे कि प्रत्याशियों को अपने चुनाव प्रचार के लिए लम्बा समय प्राप्त हो जाता है. अभी यह सत्ता में भी है, इसका नैतिक-अनैतिक लाभ भी इसके प्रत्याशियों को प्राप्त होगा. आशा है १-२ महीने में बसपा के प्रत्याशी मैदान में होंगे. कांग्रेस प्रत्याशियों की घोषणा में सबसे पीछे रहती है. उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रत्याशियों का चयन जातीय आधार पर किया जाता है जिसमें प्रबुद्ध जातियों और प्रत्याशियों की अवहेलना होनी स्वाभाविक है. 


बिहार में हाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित विजय प्राप्त हुई है, इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी पड़ेगा जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ लाभ होने की आशा है. बसपा को जहां एक ओर सत्ता का लाभ प्राप्त होगा वहीं इसे सत्ता में रहते हुए कुछ विशेष न करने के कारण हानि भी होगी. तथापि यही एक दल है जिसके पास अपना मतदाता समाज है. कांग्रेस की केंद्र में सरकार है और देश में निरंतर बढ़ती महंगाई के लिए उत्तरदायी होने के कारण मतदाता इससे रुष्ट हैं. केंद्र सरकार के कांग्रेस नेताओं के भृष्टाचार में लिप्त होने के प्रचार-प्रसार से भी इस दल को भारी हानि होगी. प्रदेश में इसके पास कोई सक्षम नेता भी नहीं है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी केवल एक परिवार और उसकी जाति की पार्टी होने के कारण लुप्त होती जा रही है जिसकी वापिसी के कोई आसार नहीं हैं.


इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रमुख मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बसपा के मध्य होना निश्चित है. राजनैतिक दलों के पारस्परिक गठबन्धनों का प्रभाव भी चुनाव परिणामों पर होगा जिसके बारे में तभी कहा जा सकता है जब कोई गठबंधन हो पाए. भारतीय जनता पार्टी के पुराने नेता कल्याण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जाति की बहुलता के आधार पर अपना नया दल बना लिया है जिससे भारतीय जनता पार्टी को कुछ हानि होगी. इस दल को उत्तर प्रदेश में कुछ हानि इस तथ्य से भी होगी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष की छबि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं है. जब कि बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की ही हैं और अछोत जाते की होने के कारण अन्य प्रदेशों में भी इस दल का प्रसार हो रहा है. यह दल मायावती को देश के भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रस्थापित करने के प्रयास करता रहा है और इसका लाभ उठाता रहा है. तथापि भारत में दलित राजनीति सदैव अल्पकालिक रही है और इस में संदेह किया जा सकता है कि मायावती कभी देश की प्रधान मंत्री बन पाएंगी. 


यदि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में बिहार जैसी स्थिति में आ जाए तो निकट भविष्य में यह केंद्र में सत्ता प्राप्त करने में सफल हो सकती है. इसके लिए इसे अन्य सहयोगी दलों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना होगा. इस दल को एक बड़ा लाभ इसके अनुशासित कार्यकर्ताओं का भी प्राप्त होता है जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित होते हैं. इसके विपरीत इस दल को कट्टर हिंदूवादी माना जाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं का सहयोग प्राप्त नहीं होता. यदि ये मतदाता बहुल रूप में बसपा को समर्थन दे दें तो भारतीय जनता पार्टी को कठिनाई में डाल सकते हैं. 
Planet India: The Turbulent Rise of the Largest Democracy and the Future of Our World


फिर भी आज देश की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि निष्ठावान इमानदार व्यक्ति के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है. कुछ आशा की किरण दिखाई देती है तो भारतीय जनता पार्टी में ही है. 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

कंगाल उत्तर प्रदेश - जन-प्रतिनिधियों पर धन वर्षा

उत्तर प्रदेश भारत का एक ऐसा प्रदेश है जहां की उर्वरा भूमि किसी को भूखे पेट सोने को विवश नहीं करती. गंगा की गोद इस भूमि पर अति प्राचीन काल से घनी जनसँख्या बसती रही है केवल इसलिए कि यहाँ की धरा की गोद सदैव हरी-भारी रहती है. इस सब के होते हुए भी विगत २० वर्षों से यहाँ के शासन की बागडोर ऐसे हाथों में रही है जो केवल शोषण करना जानते हैं, शासन-प्रशासन के मूलभूत दायित्वों से उनका कोई वास्ता प्रतीत नहीं होता. फलस्वरूप प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं, भृष्टाचार का सर्व-व्यापी बोलबाला है, सड़कें टूटी-फूटी हैं और विद्युत् शक्ति केवल महत्वपूर्ण लोगों के घरों में रोशनी करती है, शिक्षा के मंदिर बच्चों को भिक्षा पाने के घर बना दिए गए हैं जिनमें अधिकाँश अस्थायी शिक्षक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और समय व्यतीत करने आते हैं. न्यायालय थप पड़े हैं और खुली रिश्वतखोरी के अड्डे बना दिए गए हैं.  

चुनाव का समय आता  है तो राजनेता अपनी तिजोरियां खोल देते हैं और लोगों के मध्य शराब की नदियाँ बहाते हुए वोट बटोर ले जाते हैं. इससे अपराधी और भृष्ट नेताओं के चुनाव के लिए जनता को ही दोषी करार दे दिया जाता है. कोई उनकी विवशता नहीं समझता कि उन्हें अल्प समय के लिए कुछ आनंद प्राप्त होता है और उनका बहक जाना स्वाभाविक है. दोष तो चुनाव प्रणाली का है, दोष संविधान का है जो धन के बदले वोट प्रणाली को रोक नहीं पाते हैं. एक विधान सभा सदस्य के चुनाव का अर्थ है प्रत्याशी के न्यूनतम पचास लाख रुपये का व्यय. फिर कैसे कोई इमानदार व्यक्ति चुनाव में उतारे और जनता के समक्ष एक अच्छा विकल्प बने. इतना व्यय कर चुनाव जीतने वाले व्यक्ति भृष्ट होने के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकते. उनकी भी विवशता है.

शासन इन विजित जन प्रतिनिधियों की अनेक प्रकार से क्षतिपूर्ति करता है - बार बार उनके वेतन और सुख-सुविधाएँ बढ़ाते हुए. अभी-अभी ८ फरवरी को उ० प्र० की मुख्यमंत्री ने एक ही बार में जन-प्रतिनिधियों (विधान सभा सदस्यों) को देश के सर्वाधिक धनाढ्य व्यक्तियों की श्रेणी में ला दिया. अब इनकी मासिक वैध आय ५०,००० रुपये कर दी गयी है जो अभी तक ३०,००० रुपये थी. देखिये इस मासिक बढोतरी का नज़ारा -
वेतन - ३,००० से ८,०००  रुपये,
क्षेत्र भत्ता - १५,००० से २२,०००  रुपये,
स्वास्थ भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये,   
कर्मी भत्ता - ६,००० से १०,०००  रुपये. 

इसी अनुपात में प्रदेश के सभी मंत्रियों और अन्य राजनैतिक पदासीनों के वेतन भत्ते भी बढ़ा दिए गए हैं. यह ऐसी अवस्था में किया गया है जब -
  1. प्रदेश के पास विद्यालयों में नियमित अध्यापक रखने के लिए दान नहीं है, 
  2. अनेक विभागों में कर्मचारियों के वेतन धनाभाव के कारण ६-६ महीने तक भगतान नहीं किये जाते, उन्हें केवल रिश्वतखोरी से प्राप्त धन पर अपना गुजारा करना पड़ता है. 
  3. प्रदेश के पास मार्गों के निर्माण, विदुत के प्रसार आदि के लिए धन नहीं है. ऐसे कार्यों के लिए जो ऋण आदि लिया जाता है वह वेतन भुगतानों में व्यय कर दिया जाता है. 
  4. प्रदेश में एक मजदूर को मात्र १,००० रुपये मासिक की आय पर अपने परिवार का पालन-पोषण करना होता है और उसे ऊपर की भी कोई आय नहीं होती. जबकि उसके प्रतिनिधि को ५०,००० रुपये मासिक दिए जाकर भी उसे असीमित ऊपर की आमदनी से मार्ग बी खोल दिए जाते हैं.
  5. प्रदेश की पूरी अर्थव्यवस्था उत्पादन आधारित न होकर भृष्टाचार आधारित हो गयी है. 
देश तो डूब ही रहा है, उत्तर प्रदेश इस दौड़ में सबसे आगे है, और आगे ही रहेगा.