रविवार, 29 अगस्त 2010

असत्यमेव जयते

शीर्षक देखकर चौंकिए नहीं, यह भारत का धरातलीय यथार्थ है, इसे अच्छी तरह पहचानिए. महाभारत कथा के छल-कपटों को छिपाए रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का भ्रम विकसित किया गया, जबकि सच्चाई यह है कि महाभारत में 'असत्यमेव जयते' का ही बोलबाला था. इसका परिणाम यह हुआ कि छल-कपटों के माध्यम से जो विजयी हुए उन्ही को सत्य का अनुयायी मान लिया गया. किसी में साहस नहीं हुआ कि महाभारत में असत्य की विजय को स्वीकारता. इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी कहा जाता है 'जो जीता वही सिकंदर'. इस प्रकार से विजय का आधार सत्य न होकर सत्य का आधार विजय बना. 


इस 'सत्यमेव जयते' की भ्रमित मान्यता में बौद्धिकता का कोई उपयोग अथवा सम्मान नहीं था, इसका एकमात्र आधार सर्व व्यापक 'भय' था जो ईश्वर के नाम पर फैलाया गया और एक आतंकवादी को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया गया. इस सिद्धि के लिए भी असत्यमेव जयते को आधार बनाया गया. इस ईश्वर का आतंक आज तक यथावत है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकाँश मनुष्य इसके बारे में प्रश्न उठाने का भी साहस नहीं कर पाते.


जिस मस्तिष्क में ईश्वर को मान्यता प्राप्त है, उसमें बुद्धि का उपयोग निषेध होता है, वहां केवल आस्था ही सर्वोपरि होती है. आस्था का अर्थ होता है - किसी दूसरे व्यक्ति के कथन पर विश्वास करना और उसे बिना किसी कसौटी के सत्य स्वीकार कर लेना. जब कि बुद्धि का उपयोग कसौटी पर परीक्षण करने में ही होता है. महाभारत से लेकर आज तक का भारतीय जन-मानस के लिए सबसे अधिक घातक असत्य 'ईश्वर' है जिसे उसके महाभारत कालीन अवतार से पुष्ट किया गया. यही असत्य आज तक प्रचलित है और यही असत्य भारतीय जन-मानस द्वारा बुद्धि के उपयोग का निषेध करता रहा है. 


ईश्वरीय व्यवसाय के अतिरिक्त विश्व में कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो इतने लम्बे समय से अक्षुण चला आ रहा हो और जिसे संचालित बनाए रखने के लिए इतने अधिक संसाधनों - मानव-शक्ति, वित्तीय निवेश, आदि; का उपयोग किया जा रहा हो. यही व्यवसाय भारत में असत्य की स्थापना और उसका पोषण करता रहा है और उसे ही विजयश्री का अधिकारी सिद्ध करता रहा है.  और इस भृष्ट आचरण पर पर्दा डाले रखने के लिए 'सत्यमेव जयते' का नारा दिया गया. इसके आधार पर सत्य को विजय के योग्य न माना जाकर विजय को ही सत्य की कसौटी माना जाता रहा है.


उक्त कारण से भारतीय जनमानस सत्य से निरपेक्ष रहकर केवल विजय की अभिलाषा करता रहा है जिसके आधार पर उसे सत्य की प्रतिमूर्ति माना जा सके. इसी से फल-फूलता रहा है भारत में चारित्रिक संकट जो आज विकराल रूप में हमारे समक्ष खडा है और संपूर्ण मानवीय नैतिकता को लील रहा है. 


महाभारत में जो घटा, वही आज भारत के प्रत्येक छोटे-बड़े समाज और शासन-प्रशासन में घटित हो रहा है, असत्य की सर्वस्व विजय हो रही है, जनमानस कराह रहा है. उसके पास आत्मसंतुष्टि के लिए एकमात्र आश्रय यही है 'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा'. किन्तु उसे ज्ञान नहीं है कि यह उसका आत्मसंतुष्टि हेतु भ्रम है. इसके भ्रम होने का प्रमाण यही है कि 'जो जैसा करेगा, वैसा कब भरेगा - आज कल में, अपने जीवन के अंत में, अथवा अपने जन्मान्तर में'. आत्मसंतुष्टि इसी में निहित है कि ऐसा असुविधाजनक प्रश्न उठाया ही न जाए. 
The Phantom of the Psyche: Freeing Ourself from Inner Passivity


ऐसी निराधार आत्मसंतुष्टि जनमानस में निष्क्रियता उत्पन्न कर रही है, जिसके कारण वह किसी भी अत्याचार, भृष्टाचार, व्यभिचार, आदि के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार नहीं है और ये सब दुराचार निरंतर पनप रहे हैं - बिना किसी प्रतिकार के.   

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

समाज-कंटकों की अर्थ व्यवस्था

लगभग ३५०० की जनसँख्या वाले मेरे गाँव खंदोई में केवल ५-६ व्यक्ति समाज-कंटक कहे जा सकते हैं, किन्तु ये ५-६ ही सर्व व्यापक प्रतीत होते हैं. मूल रूप में इन का कार्य दूसरे लोगों की विवशताओं और निर्बलताओं  का लाभ उठाते हुए उनका आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शोषण करना है. इनकी विशेषता यह है कि ये रोज शाम को शराब पीते हैं जब कि इनमें से कोई भी इतना संपन्न नहीं है कि स्वयं के धन से शराब पी सके या दूसरों को पिला सके. इसके लिए ये गाँव के लोगों में झगड़े-फसाद कराते हैं, और उसके बाद एक का पक्ष लेकर उसके धन से शराब पीते हैं.

इनकी शराबखोरी के लिए आय का दूसरा स्रोत वे लोग बनते हैं जो स्वयं अपराध करते हैं. इनके अपराध प्रकाश में आने से इन्हें रक्षा की आवश्यकता होती है जो इन्हें समाज कंटकों द्वारा सहर्ष प्रदान की जाती है. इस रक्षा के बदले अपराधी इनके लिए शराब आदि की व्यवस्था करते हैं. यद्यपि ये सभी मामलों में अपराधी को बचा नहीं पाते हैं किन्तु बचाए रखने का आश्वासन देकर और उसकी पुलिस से मध्यस्थता करते हुए अधिकाधिक लम्बे समय तक उसके धन से शराब पीते रहते हैं. इन्हीं के आश्रय पर गाँव में शराब विक्रय के अवैध केंद्र बने हुए हैं. उदाहरण के लिए गाँव में अभी हाल में हुए बलात्कार के मामले में उसकी पुलिस में शिकायत होने पर भी ये समाज-कंटक उस अपराधी को पुलिस से सुरक्षा का आश्वासन देते रहे और इस प्र्ताक्रिया में उसके २५,००० रुपये व्यय कराकर उसे स्वयं पुलिस के हवाले कर दिया, जिसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही हुई.

समाज कंटकों की आय का तीसरा स्रोत राजनैतिक सत्ताधारी हैं जो चुनाव के दिनों में जन-साधारण के मत पाने के लिए इनकी सहायता माँगते हैं और उसके बदले इन्हें धन देते हैं. बाद में ये राजनेता ही इनकी पुलिस और न्याय व्यवस्था से रक्षा करते हैं. इन सत्ताधारियों से संपर्क बनाए रखने के लिए ये स्वयं भी गाँव की राजनैतिक सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं जिसमें सम्बंधित राजनेता भी इनकी सहायता करते हैं. इस सत्ता को हथियाने के लिए ये लोग समाज में जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक आदि विष घोलते हैं, लोगों में परस्पर मतभेद कराते हैं और उन्हें भ्रमित करके उनके मत पाकर राजनैतिक सत्ता हथियाते हैं. इस सत्ता के माध्यम से ये सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करते हुए वैभवशाली जीवन जीते हैं.  

इनकी आय का चौथा स्रोत पुलिस है जिससे ये घनिष्ठता बनाए रखते हैं जब कि जन-साधारण पुलिस से दूर रहना पसंद करता है. जब भी किसी जन-साधारण को पुलिस की सहायता की आवश्यकता होती है, ये लोग उस व्यक्ति की पुलिस के साथ मध्यस्थता करते हैं और पुलिस को उस व्यक्ति से धन दिलाते हैं, जिसमें इनका भी हिस्सा होता है. चूंकि ये लोग पुलिस को आय के मुख्य स्रोत हैं, पुलिस भी इन्हें महत्व देती है और इनसे संपर्क बनाए रखती है.

अभी आगामी ग्राम पंचायत चुनाव के लिए पुलिस कुछ तथाकथित समाज-कंटकों के विरुद्ध सदा के तरह कार्यवाही कर रही है जिसके लिए पुलिस इन्हीं समाज-कंटकों के साथ मिलकर सूची बना रही है. इस सूची में इनके नाम सम्मिलित नहीं किये जा रहे किन्तु अनेक सम्मानित लोग समाज-कंटकों के रूप में सूचीबद्ध किये गए हैं. इनमें से जिनको पुलिस कार्यवाही से बचना होता है वे इन्हीं समाज-कंटकों की सहायता माँगते हैं जिसके बदले इन्हें असली समाज कंटकों को शराब आदि पिलानी होती है.  प्रत्येक चुनाव प्रक्रिया में ऐसा ही होता रहा है. सूचनार्थ बता दूं कि इस बार इन समाज-कंटकों ने मुझे पुलिस द्वारा आतंकवादी घोषित करने का प्रयास किया है जिसका मैं डटकर मुकाबला करूंगा.
Crime and Punishment

ये समाज-कंटक स्वयं भी अनेक प्रकार के अपराध करते रहते हैं. इनमें से अनेक को हत्या, बलात्कार, आदि अपराधों के लिए न्यायालयों से दंड मिल चुके हैं किन्तु देश की न्याय प्रक्रिया के मंद और लचर होने के कारण ये दीर्घ काल तक जमानत पर छूटे रहते हैं. इनके अनेक परिवार वाले जघन्य अपराधों के मामलों में सम्मिलित होने के दण्डित हुए हैं किन्तु जमानत पर रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं. इसी प्रकार अब भी इनमें से प्रत्येक के विरुद्ध न्यायालयों में मुकदमे चल रहे हैं किन्तु इन्हें आशा है कि इनके जीवन काल में इन्हें कोई दंड नहीं दिया जा सकेगा. इसी आशा में ये अब भी निर्भीक रहकर अपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं.  

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

हमारी सर्वोत्तम संपदा - वर्तमान ज्ञान

विगत सप्ताह एक दुर्घटना हुई - गाँव में एक व्यक्ति ने एक निर्दोष महिला के साथ बलात्कार किया और मामला मेरे समक्ष पहुंचा, आरोपित व्यक्ति को दंड दिलवाने के लिए. यह तीक्ष्ण चर्चाओं का विषय बना क्योंकि आरोपित व्यक्ति ने कभी कोई दुष्कर्म नहीं किया था और उसकी छबि एक सज्जन व्यक्ति की थी. विविध स्थानों पर गहन चर्चाओं और तर्क-वितर्कों से यह सिद्ध हुआ कि आरोपित व्यक्ति ने अपराध किया था जो उसने स्वयं भी स्वीकारा. इस कारण से उस व्यक्ति को दंड दिया जाना अपरिहार्य था. तथापि अपराधी के भी कुछ समर्थक बने रहे जो उसे दंड प्रक्रिया से बचाना चाहते थे, केवल इस आधार पर कि आरोपित व्यक्ति के भूत काल के चरित्र के कारण इस प्रकरण में कभी कुछ नए तथ्य उभर कर सामने आ सकते हैं जिनके कारण उसका निर्दोष होना संभव हो सकता है. इन समर्थकों ने पीड़ित महिला की व्यथा-कथा पर कोई ध्यान नहीं दिया. मेरा स्पष्ट एवं दृढ मत यह था कि इस प्रकरण में हमारा वर्तमान ज्ञान ही हमारे अगले कदम का आधार होना चाहिए और इसे भविष्य के किसी संभावित ज्ञान के लिए टाला नहीं जा सकता.

इस बारे में मेरा तर्क यह भी था कि भविष्य में हमें यह भी ज्ञात हो सकता है कि आरोपित व्यक्ति ने पहले भी अनेक अपराध किये थे जिनपर अभी तक पर्दा पडा हुआ है, और जिनके लिए उसे और भी अधिक दंड दिया जाने की आवश्यकता हो सकती है. इस कारण से भविष्य के संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं की जा सकती. यही प्रकरण इस आलेख का आधार है ताकि इस विषय की अच्छी तरह समीक्षा हो.

यद्यपि ज्ञान सर्वदा संवर्धित होता रहता है, तथापि प्रत्येक सामयिक बिंदु पर तत्कालीन ज्ञान ही मनुष्य जाति की सर्वोत्तम संपदा होती है. इस प्रकार भविष्य में संभावित ज्ञान के लिए वर्तमान ज्ञान की अवहेलना कदापि नहीं की जा सकती. किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वर्तमान ज्ञान को ही अंतिम मान कर इसे संवर्धित करने के प्रयास न किये जाएँ, अथवा बिना किसी सार्थक पुष्टि के किसी भी सूचना को वर्तमान ज्ञान मान लिया जाए और उसी के आधार पर निर्णय लिए जाएँ. वस्तुतः निर्णय से पूर्व प्रत्येक सम्बंधित सूचना को पुष्ट कर लिया जाना चाहिए.

आइये समय के तीन चरणों - भूत, वर्तमान, भविष्य - की दृष्टि से वर्तमान ज्ञान के महत्व को परखते हैं. वर्तमान में हम और हमारा वर्तमान ज्ञान हमारे भूत के उत्पाद होते हैं. भूत काल में जो कुछ भी हुआ, उससे हम विकसित हुए हैं - अपने अनुभवों द्वारा. इस प्रकार अपने भूत से हम अपना समग्र वर्तमान पाते हैं - जिसके प्रमुख तत्व हमारा अस्तित्व और हमारा ज्ञान होते हैं., बस यही महत्व है हमारे भूत का, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं. हमारा वर्तमान - अस्तित्व और ज्ञान, हमारे उस भविष्य की आधारशिला बनता है जिसमें हमारी सभी अभिलाषाएं, आकांक्षाएं, योजनाएं, आदि समाहित होती हैं. अतः हमारा भविष्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए हमें अपने वर्तमान से संबल प्राप्त होता है. इसलिए वर्तमान अस्तित्व और ज्ञान की किसी प्रकार से भी अवहेलना हमारे भविष्य को दुष्प्रभावित करती है और हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहते हैं. इस कारण से हमारी सर्वोत्तम संपदा हमारा वर्तमान है जिसमें हमारा ज्ञान भी सम्मिलित होता है.

हाँ, इतना अवश्य है कि हमें प्रत्येक विषय पर सदैव और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुक्त ही नहीं जिज्ञासु भी होना चाहिए और उस समय पर अपने कार्य-कलाप तदनुसार ही निर्धारित करने चाहिए. इस प्रकार के किसी संभावित ज्ञान के लिए हम अपने वर्तमान कार्य-कलापों के निर्धारण में कोई स्थान नहीं दे सकते. इसे केवल अप्रत्याशित ज्ञान के वर्ग में रखा जा सकता है जिसके लिए उसी समय कार्यवाही की जा सकती है, अभी कुछ नहीं. क्योंकि जो अप्रत्याशित है, उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कुछ भी हो सकता है.

विगत एक दशक से वैधानिक प्रक्रिया में मृत्यु दंड दिए जाने का विरोध किया जा रहा है जिसका आधार यह है कि भविष्य में कभी आरोपित व्यक्ति निर्दोष सिद्ध हो सकता है और ऐसी स्थिति में मृत्यु दंड को निरस्त नहीं किया जा सकेगा जो एक अन्याय होगा. मैं इसका प्रबल विरोधी हूँ, क्योंकि ऐसी संभावनाएं तो हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई भी निर्णय लेने में बाधाएं खडी कर देंगी और समस्त मानव जीवन दूभर हो जाएगा. सभी समय सशक्त सुविचारित निर्णय ही तो मानव का प्रबल सकारात्मक गुण है जिसे सतत पुष्ट किया जाना चाहिए. इसे निर्बल करना मानवता के लिए घातक हो सकता है.  
Angel of Death Row: My Life as a Death Penalty Defense Lawyer

अतः, हम भविष्य में क्या होंगे अथवा उस समय हमारा ज्ञान क्या होगा, उसके लिए हम कदापि अपने वर्तमान ज्ञान की अवहेलना नहीं कर सकते क्यों कि यही तो हमारे भविष्य के ज्ञान की आधारशिला है और आधारशिला की अवहेलना कर हम भवन का निर्माण नहीं कर सकते.

रविवार, 22 अगस्त 2010

बौद्धिक हलचल

एक ओर भारत के राजनैतिक अपराधी अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए देश के सघन शहरों से लेकर सुदूर ग्रामों तक आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को प्रोत्साहित कर रहे हैं ताकि लोग आक्रांत रहते हुए उनकी शरण पाने हेतु लालायित रहें, तो दूसरी ओर देश के चुनिन्दा बुद्धिजीवी अल्प संख्या में होने पर भी देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने के प्रयास कर रहे हैं. आज २२ अगस्त २०१० को इन बुद्धिजीवियों ने दिल्ली में लोदी मार्ग स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर के एक कक्ष में इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव के तत्वाधान में विचार विमर्श किया जो उनकी २३वीन बैठक थी. इस बैठक की विशेषता यह रही कि एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन हेतु संकल्पित भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा एवं अन्य वर्गों के अनेकानेक सेवारत और सेवानिवृत अधिकारी उपस्थित थे तो दूसरी ओर जन-सामान्य के स्तर पर कार्य करने वाले अनेक समर्पित बुद्धिजीवी भी वहां उपस्थित थे. इन दोनों वर्गों की उपस्थिति स्पष्ट संकेत देती है कि परिवर्तन के प्रयास ग्राम स्तर से लेकर राष्ट्र स्तर तक किये जा रहे हैं.

राष्ट्र स्तर पर सक्रिय उक्त बुद्धिजीवियों में सर्वश्री विजय शंकर पाण्डेय, सुनील कुमार, जाविद चौधरी (सभी आई ए एस), श्री बी. आर. लाल (आई पी एस), सहित एक दर्ज़न सज्जन उपस्थित थे. जिन सज्जनों की उपस्थिति अपेक्षित थी उनमें सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश श्री आर सी लाहोटी, और उत्तर प्रदेश पुलिस के उप महा निरीक्षक (प्रशिक्षण) थे जो कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण उपस्थित न हो सके.  

ग्राम से जनपद स्तर पर कार्य करने वालों में मैं स्वयं, इटावा के श्री महेश मानव, राजस्थान के विधायक श्री सुखराम कोली, आदि ने भाग लिया. दोनों वर्गों के समन्वय का श्रेय ओनेस्टी  प्रोजेक्ट के श्री जय कुमार झा को जाता है. श्री महेश मानव अनेक वर्षों से इस कार्य में लगे हैं और देश भर में समधर्मियों से मिलकर देश में एक सर्वव्यापक आन्दोलन की रचना कर रहे हैं. श्री सुखराम कोली विधायक होते हुए भी अपनी सरलता और सहजता के साथ जन सामान्य के हितों के लिए समर्पित हैं. वे यात्राओं के लिए जन साधारण की तरह सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करते हैं, और अपनी सुख सुविधा के लिए सार्वजनिक धन के उपयोग से बचे ही रहते हैं.

इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव ने स्विस बैंकों में जमा देश के १,४५६ बिलियन डॉलर को देश में वापिस लाने हेतु एक अभियान चला रखा है जिसको अनेक समाचार पत्रों और ब्लोगों पर प्रकाशित किया गया है. यह धन देश के कुल विदेशी ऋण का लगभग ७ गुणित है तथा इसके देश में ही उपयोग किये जाने से भारत में विश्व स्तर के साधन बड़ी सुगमता से विकसित किये जा सकते हैं जिससे भारत तुरंत विकसित देशों की श्रेणी में पहुँच सकता है.  
Fighting Corruption in Developing Countries: Strategies and Analysis

धरा स्तर पर कार्य करने वाले बुद्धिजीवियों ने अपनी कठिनाइयाँ बताते हुए उनसे अपने सतत संघर्षों के संकल्प व्यक्त किये. उच्च स्तर पर कार्यरत बुद्धिजीवियों ने धरा स्तर पर कार्य करने वाले लोगों को अपने पूरे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनका उत्साह बढाया. वस्तुतः धरा स्तर पर कार्य करना अधिक दुष्कर है क्यों कि अधिकाँश भृष्ट अधिकारी और राजनेता उनके कार्यों में बाधाएं खडी करते रहते हैं.      

समाज का जातीय विभाजन

भारत में एक विशिष्ट वर्ग है जो सबसे पहले लोगों को नष्ट करता है, सफल न होने पर उन्हें भृष्ट करता है, भृष्ट न कर सकने पर उनकी चापलूसी करता है, और इसमें भी सफल न होने पर उन्हें स्वयं का अंग घोषित कर देता है. इसी वर्ग ने लोगों को भृष्ट करने के लिए उनमें जातीय विष फैलाया - व्यवसायों को जातियों से सम्बद्ध कहकर. तदनुसार, जिसने कभी एक बार किसी विवशता में कोई तुच्छ कार्य कर लिया, उसकी सन्ततियां सदा-सदा के लिए शुद्र ही रहेंगी चाहे वे कितने भी महान कार्य क्यों न करें. चूंकि यह वर्ग सुविधा-संपन्न होने के कारण समाज का अगुआ बना इसलिए जातीय आधार पर इसकी सन्ततियां भी समाज की अगुआ ही बनी रहीं चाहे वे कितने भी घृणित कार्य क्यों न करें.

एक उदाहरण देखिये - विष्णुगुप्त चाणक्य एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें कोई पराजित नहीं कर सका. इन्हीं से भारत में गुप्त वंश का आरंभ हुआ. एक विशेष प्रयोजन के लिए इन्होने एक छद्म रूप धारण किया था - ब्राह्मण का, अर्थात एक सृजनकर्ता का. उस समय तक भारतीय समाज का जातीय विभाजन नहीं हुआ था. इसलिए विष्णुगुप्त की कोई जाति नहीं थी. वे युगपुरुष थे.

उक्त विशिष्ट वर्ग ने समाज के जातीय विभाजन के लिए एक सुप्रसिद्ध देव्ग्रंथ 'मनुस्मृति' के भृष्ट अनुवाद और भाष्य आदि प्रकाशित कर तत्कालीन व्यवसायों को जातियां बना दिया और निर्धारित कर दिया कि जो व्यक्ति जो व्यवसाय कर रहा है उसकी सन्ततियां भी वही व्यवसाय करती रहेंगी. चूंकि यह वर्ग छल-कपट के माध्यम से वैभवशाली जीवन जी रहा था, इसलिए इसने स्वयं के लिए इसे ही व्यवसाय बना लिया. धर्म, ईश्वर, आदि के नाम पर ज्योतिष, भूत-प्रेत, जन्म-जन्मान्तर, आदि अनेक मनगढ़ंत छल-कपट पूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और इन्हीं के माध्यम से समाज को भ्रमित करने को अपना व्यवसाय बना लिया. इसी वर्ग ने विष्णुगुप्त चाणक्य को ब्राह्मण घोषित किया हुआ है.

जातीय विभाजन का यह घृणित कार्य गुप्त वंश के शासन के बाद किया गया जब भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था और यह वर्ग सर्वव्यापक राजगुरु पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था. इसी समय आधुनिक संस्कृत का विकास किया गया जिसमें वैदिक संस्कृत की शब्दावली का उपयोग तो किया गया किन्तु उनके अर्थ विपरीत कर प्रकाशित दिए गए. तदनुसार वैदिक ग्रंथों के अनुवाद भी भृष्ट कर दिए गए और उनके माध्यम से धर्म, ईश्वर, ज्योतिष, आदि शब्दों के प्रदूषित अर्थ और भाव प्रकाशित कर समाज के जातीय विभाजन को बहुविध पुष्ट किया गया.

उक्त पुष्टि और समाज पर उक्त वर्ग के अंकुश बने रहने के कारण भारतीय समाज का जातीय विभाजन आज तक यथावत चल रहा है, इस विभाजन का सातत्व बनाये रखने के लिए जाति के अंतर्गत ही विवाह की प्रथा बनायी गयी. इससे समाज में लगी  जातीय दीवारें नित्यप्रति पुष्ट होती रहती हैं.

आरम्भ में केवल चार जातियां बनायी गयीं जिन्हें वर्ण कहा गया. उसके बाद वर्णों में जातियां और उपजातियां बनायी जाती रही हैं. इसे व्यक्त करने के लिए कहा गया है -
'ज्यों केले के पात में, पात पात में पात, त्यों हिन्दुओं की जात में जात जात में जात'

स्वतन्त्रता के बाद स्थापित तथाकथित जनतंत्र में यह जातीय विभाजन विष का कार्य कर रहा है. चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जाति से ही अटूट रूप से जुदा है, इसलिए वह जनतांत्रिक चुनावों में भी जाति को ही आधार बनाता है, प्रत्याशियों की सुयोग्यता पर कोई विचार नहीं किया जाता. इस कारण भारत की राजनैतिक सत्ता उन लोगों के हाथों में खिसकती जा रही है जो संतान उत्पादन में अग्रणी और शिक्षा आदि में पिछड़े हुए हैं. जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर विविध प्रकार के आरक्षण जातीय विष को और भी अधिक तीक्ष्णता प्रदान कर रहे हैं. अपने पारस्परिक संयोग से जातीय विभाजन और आरक्षण नित्यप्रति पुष्ट होते जा रहे हैं.
The Population Explosion

भारत में जनसँख्या विस्फोट भी इसी जातीय विभाजन का परिणाम है. इसके कारण अनेक जातियां अपनी-अपनी जनसँख्या में केवल इसलिए अत्यधिक वृद्धि कर रहें हैं ताकि एक दिन देश की राजनैतिक सत्ता उनके पास सदा-सदा बनी रहे. यदि स्थिति इसी दिशा में आगे बढ़ती रही तो भारत विनाश अवश्यम्भावी है.      

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

एक और बलात्कार प्रयास और मेरे विरुद्ध षड्यंत्र

मेरे गाँव में एक गेंग है जो राहजनी, लूटपाट, चोरी, डकैती, बलात्कार आदि में शामिल रहता है. जिनका मैं डटकर मुकाबला करता रहता हूँ जिनके विवरण इस संलेख में प्रकाशित हैं. यह गेंग स्थानीय पुलिस से भी सान्थ्गान्थ रखता है जिससे पुलिस इन्हें कुछ संरक्षण भी प्रदान करती है. इसी श्रंखला में कल एक नयी घटना घटी जिसकी दूरगामी परिणाम होंगे.

एक ब्रह्मण स्त्री अपने खेत पर कर लेने गयी थी. चारे का गट्ठर उठवाने के लिए उसने एक व्यक्ति से सहायता माँगी जो पास के खेत में सिंचाई कर रहा था. उसने स्त्री की सहायता करने के स्तन पर उसे पास के गन्ने के खेत में खींच लिया और उसके साथ बलात्कार का प्रयास किया. स्त्री के शोर मचने पर, उस व्यक्ति ने स्त्री का गला घोटकर हत्या का प्रयास किया. विवश स्त्री ने अपने एक मात्र पुत्र की कसम खाकर अपराधी को विश्वास दिलाया कि वह इस घटना के बारे में किसी को कुछ नहीं बताएगी जिस पर उसे छोड़ दिया गया. छूटने के स्त्री घर आयी और अपने पारिवारिक लोगों को घटना की जानकारी दी. यह अपराधी भी उक्त गेंग के एक परिवार से ही है.

इस घटना की चर्चा पूरे गाँव में होने पर गेंग के कुछ सदस्य समझौते का प्रस्ताव लेकर स्त्री के परिवार जनों से मिले जो सभी उस व्यक्ति की आपराधिक वृत्ति स्वीकार करते रहे किन्तु उसे सामाजिक दंड देकर क्षमा करने की मांग करते रहे. स्त्री के विरोध करने पर भी परिवारजनों ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किन्तु लगभग ३ घंटे प्रतीक्षा करने पर भी प्रस्ताव के कार्यान्वयन के लिए कोई आगे नहीं आया और शाम के चार बज गए.

उक्त घटनाक्रम के दौरान मैं गाँव से बाहर था और मेरे ४बजे वापिस लौटने पर वह स्त्री और गाँव की अनेक स्त्रियों ने मुझसे न्यायपूर्वक हस्तक्षेप की अश्रुपूर्ण मांग की. उन्होंने मुझे यह भी बताया कि उनका समझौते का प्रस्ताव स्वीकार होने पर भी वे आगे नहीं आये हैं. अतः पुलिस में रिपोर्ट करना ही आवश्यक है. अतः पुलिस में रिपोर्ट की गयी और पुलिस ने पूछताछ के लिए आरोपी व्यक्ति को बुलवाया किन्तु गेंग ने उसे छिपा दिया. पुलिस द्वारा स्त्री का चिकित्सीय परीक्षण भी करा लिया गया है. किन्तु अभी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अपराधी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज नहीं किया है. इस विलंब के लिए पुलिस को कुछ रिश्वत भी दी गयी है.

गेंग ने उस अपराधी को छिपा रखा है और पुलिस को पूछताछ भी नहीं करने दे रहा है. साथ ही गेंग ने मेरे विरुद्ध भी षड्यंत्र रचना आरम्भ कर दिया है जिसके अंतर्गत उक्त अपराधी की पत्नी को तैयार किया गया है जो मुझ पर बलात्कार का आरोप लगाएगी और उसकी रिपोर्ट पुलिस में करेगी. इस व्यवस्था के लिए गेंग के सदस्यों ने चंदा देकर कुछ धन भी एकत्र किया है. यह स्त्री भी दुश्चरित्र है और गेंग के सदस्यों के विलास का साधन है. 
The Offence


इस गेंग के दो प्रमुख सदस्य हैं - इकपाल सिंह और हरिराज सिंह. दोनों गाँव के प्रधान रह चुके हैं और हरिराज आगामी चुनाव में भी प्रत्याशी होने का इच्छुक है. इकपाल सिंह सहकारी विभाग में नियुक्त था और वहां से आर्थिक अनियमितता के कारण सेवामुक्त किया गया था. साथ ही उसके विरुद्ध सहकारी विभाग की एक भारी धनराशी बकाया है. इसे चुकता करने से बचने के लिए इसने अपनी पूरी भूमि बेच दी है और उस धन से अपने पुत्रों के नाम भूमि खरीद ली है. बकाया राशि की वसूली के लिए उस पर मुकदमा चल रहा है जिसमें वह उपस्थित नहीं होता है. न्यायालय से जारी वारंट स्थानीय पुलिस के पास अनेक वर्षों से पड़े हैं जो रिश्वत लेकर इकपाल का गाँव में उपलब्ध न होना दर्शा देती है, जब कि वह नियमित रूप से गाँव में ही रहता है और पुलिस से निकट संपर्क भी बनाए रहता है.   .

शनिवार, 14 अगस्त 2010

भृष्टाचार उन्मूलन

वर्तमान में अथवा भूतकाल में अनेक उच्च एवं प्रतिष्ठित पदों पर आसीन व्यक्ति एवं उनके संगठन भारत में फैले उच्च स्तरीय भृष्टाचार से दुखी हैं और इसके उन्मूलन हेतु कार्य कर रहे हैं. यह सही है कि उच्च स्तर पर हो रहा भृष्टाचार ही निम्नतम स्तर तक पहुंचा है क्योंकि भृष्टाचार सदैव उच्च स्तर से नीचे की ओर उत्प्रेरित होता है, न कि निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर. इस प्रकार यदि उच्च स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जाता है तो निम्नस्तरीय भृष्टाचार भी एक दिन स्वतः समाप्त हो जाएगा. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि निम्न स्तरीय भृष्टाचार को यथावत स्वीकार किया जाता रहे अथवा इसे प्रोन्नत किया जाता रहे, और इसके उन्मूलन की तभी आशा की जाये जब उच्च-स्तरीय भृष्टाचार समाप्त हो जायेगा.

भृष्टाचार भारतीय जन-मानस की रग-रग में रच-बस गया है, किसी दुल्हन की हथेलियों पर लगी मेहंदी की तरह, जिसे तुरंत समाप्त नहीं किया जा सकता. इसकी समाप्ति के लिए दीर्घ-कालिक सतत प्रयास करने होंगे, प्रत्येक स्तर पर. यह भी सही है कि निम्न स्तर पर भृष्टाचार समाप्ति के प्रयास प्रायः निष्फल अथवा अस्थायी होते हैं. किन्तु निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास एक जन-आन्दोलन को प्रेरित करते हैं, जो क्षमता उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयासों में नहीं होती. ये प्रयास अधिकाँश में न्यायालयी संघर्षों द्वारा किये जाते हैं.

भृष्टाचार  उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि भृष्ट लोगों के मानस में भय व्याप्त हो जिसकी सामर्थ्य जन-आन्दोलन में होती है  जो निम्न-स्तरीय संघर्षों से उत्प्रेरित होते हैं. किन्तु निम्न-स्तरीय भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास कालजयी नहीं होते, इसलिए  उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के बिना स्थायी नहीं हो सकते. इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास दोनों स्तरों पर किये जाने चाहिए. इसके लिए सूत्र यह है कि जो जहां है, वहीं भृष्टाचार पर प्रहार करे और सतत करता रहे.

निम्न स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन में सबसे बड़ी बाधा यह है कि जन-मानस ने इसे जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर लिया है और वह इसके विरुद्ध स्वर बुलंद कर जन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं है. यहाँ तक कि जो भी इसके लिए छुट-पुट प्रयास किये जाते हैं, स्वयं जन-मानस ही उनकी अवहेलना करता है, तथा यदा-कदा अपनी स्वीकार्य जीवन-शैली बनाए रखने के लिए ऐसे संघर्षों के विरुद्ध कार्य भी करता है. इस अवहेलना और विरोध के कारण निम्न-स्तरीय संघर्ष दीघ-जीवी सिद्ध नहीं होते. साथ ही साधनहीनता के कारण इनका दमन भी सरल होता है. इन्हें बनाए रखने के लिए उच्च स्तरीय सहयोग आवश्यक होता है.
Mass Psychology (Penguin Modern Classics Translated Texts)

इस चर्चा से जो कार्य-शैली प्रभावी प्रतीत होती है, उसके विविध आयाम निम्नांकित हैं -

  • उच्च स्तर पर भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास अवश्य हों और इसके लिए व्यापक संगठनात्मक ढांचा विकसित किया जाये.
  • निम्न स्तर पर भी भृष्टाचार उन्मूलन के प्रयास हों, जिनके माध्यम से जन-मानस में संशोधन हो, और जन-संघर्ष उत्प्रेरित किये जाएँ. इसके लिए निम् स्तर पर भी स्थानीय संगठन बनें. 
  • निम्न स्तरीय प्रयासों को सतत बनाए रखने के लिए उच्च स्तर से सहयोग और संरक्षण प्रदान किया जाए. 
  • उच्च स्तरीय प्रयासों के लिए जहां कहीं जन-आन्दोलन की आवश्यकता हो, निम्न स्तरीय जन संघर्ष इनमें यथाशक्ति सहयोग प्रदान करें.  
इस प्रकार भृष्टाचार उन्मूलन के लिए शक्ति और जन-चेतना दोनों के समन्वय की आवश्यकता है जो क्रमशः उच्च और निम्न स्तरों पर उपलब्ध होते हैं, अतः उच्च एवं निम्न दोनों स्तरों पर प्रयासों का महत्व है और दोनों में सहयोग अपरिहार्य है. 

बुधवार, 11 अगस्त 2010

भृष्ट आरक्षण में भी भृष्टाचार

भारत में विविध प्रकार के आरक्षण सामाजिक और राजनैतिक भृष्टाचार के प्रतीक हैं और यह महादानव विकराल रूप धारण कर चुका है. इसके माध्यम से राजनेता और प्रशासक अपने मनोवांछित स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं. एक बार फिर, मुझे पंचायत चुनाव में प्रत्याशी होने के अपने मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया गया है, क्योंकि यह गाँव के असामाजिक तत्वों, विकास क्षेत्र और जनपद के प्रशासनिक अधिकारियों के मनोनुकूल नहीं है. 

प्रदेश सरकार की घोषित नीति के अनुसार गाँव खंदोई का प्रधान पद अनारक्षित रहना था जैसा कि सन २००० में रहा था. तदनुसार ग्रामवासी मुझे इस पद पर चुन कर चारों और फैले भृष्टाचार से संघर्ष करते हुए गाँव का विकास चाहते थे. इससे गाँव के असामाजिक तत्वों को और विकास क्षेत्र के अधिकारियों को बड़ी असुविधा होनी थी जो विकास के संसाधनों को हड़पते रहने के अभ्यस्त हो गए हैं. अतः उन्होंने सरकार की आरक्षण हेतु घोषित नीति की अवहेलना करते हुए गाँव की प्रधान पद को अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित घोषित कर दिया है. इससे मैं चुनाव मैदान से बाहर कर दिया गया हूँ ताकि गाँव में अशिक्षित असामाजिक तत्व सत्तासीन रह सकें और विकास क्षेत्र के अधिकारियों के साथ मिलकर विकास के संसाधनों को हड़पते रहें. 

मेरे पद के लिए प्रत्याशी होने का समाचार दूर-दूर तक फ़ैल चुका था जिससे लोगों को गाँव के क्षेत्र के विकास के लिए भृष्टाचार पर अंकुश लगने की आशा थी. मेरी अभिलाषा थी कि मैं इस पद से अपने गाँव को एक आदर्श गाँव के रूप में विकसित कर दूंगा ताकि देश के अन्य गाँवों को उसी आधार पर विकसित होने का मार्ग प्रशस्त हो सके. इस योजना के अंतर्गत -
  • गाँव में कुटीर उद्योगों की स्थापना से गाँव के प्रत्येक नागरिक को गाँव में ही रोजगार के अवसर प्रदान करना है,
  • गाँव के किसी नागरिक को अपने कार्यों के लिए किसी सरकारी कार्यालय में जाने की आवश्यकता नहीं होगी और जनपद स्तर तक के अधिकारी नियमित रूप से गाँव अथवा क्षेत्र में ही अपने शिविर लगायेंगे और नागरिकों की उचित समस्याओं का तत्काल निवारण करेंगे,
  • गाँव में एक उच्च प्राथिमिक विद्यालय, कन्या माध्यमिक विद्यालय, एक डिग्री कॉलेज, और एक औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान के स्थापना होगी ताकि स्थानीय लोगों में सभ्यता विकास एवं रोजगार हेतु शिक्षा एवं कौशल विकसित हो,
  • गाँव में एक खेल स्टेडियम की स्थापना हो ताकि ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को अपनी प्रतिभा दर्शाने के अवसर मिलें. अभी गाँव में कोई खेल का मैदान भी नहीं है. 
  • गाँव की सार्वजनिक संपदा, प्रमुखतः भूमि, को निजी अधिकारों से मुक्त करा निर्धन और भूमिहीन परिवारों को देना ताकि वे अपने कूड़े-करकट गाँव के मार्गों के दोनों ओर डालने के लिए विवश न रहें. इससे गाँव का वातावरण शुद्ध होगा और लोग स्वस्थ रहेंगे. 
  • गाँव में चल रहे अनेक अवैध शराब के विक्रय केन्द्रों को बंद कराया जाएगा ताकि लोग शराब से विमुख होकर विकास की ओर ध्यान दें.
  • गाँव में होने वाले झगड़े-फिसादों को गाँव में ही निपटाया जाएगा, ताकि सौहार्द-पूर्ण वातावरण बने और लोगों की कमाई मुकदमों पर व्यर्थ न हो. 
  • गाँव के प्रत्येक मार्ग के दोनों ओर वृक्षारोपण होगा ताकि वातावरण शुद्ध हो, और गाँव सभा को नियमित आय हो. इससे मार्गों पर अवैध अधिकारों से मुक्त रखा जा सकेगा. 
  • गाँव में विद्युत् व्यवस्था दुरुस्त कराई जायेगी और लोगों को इसकी चोरी न करने के लिए प्रेरित किया जाएगा ताकि वे वैध रूप से विद्युत् उपभोक्ता बनें.                                              
DIY's Holiday Workshop 102उपरोक्त प्रावधानों से गाँव के असामाजिक तत्वों और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की वर्तमान भृष्ट गतिविधियों पर अंकुश लग जाता जो उन्हें पसंद नहीं है. इसलिए इन सब ने मिलकर मुझे मेरे अधिकार से वंचित किया है. 

मन और मस्तिष्क का संघर्ष

मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे उसके मन अथवा मस्तिष्क का मार्गदर्शन होता है. मन शारीरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्प्रेरित करता है, तथा इसमें उचितानुचित पर चिंतन करने की सामर्थ्य नहीं होती. मनुष्य के मस्तिष्क में उसके भूतकाल के अनुभवों की स्मृतियाँ तथा उनके उपयोग की सामर्थ्य होती है जिससे वह उचितानुचित पर चिंतन कर अपने कार्य करता है. उचितानुचित के चिंतन की सामर्थ्य ही मनुष्य का विवेक कहलाता है.

शरीर से कार्यों हेतु सञ्चालन की सामर्थ्य भी मस्तिष्क में ही होती है अतः कार्य चाहे मन के मार्गदर्शन में हो अथवा मस्तिष्क के, मस्तिष्क शरीर के सञ्चालन हेतु सदैव सक्रिय रहता है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का मन भी मस्तिष्क के माध्यम से कार्य कराता है जिसमें मनुष्य के विवेक का सक्रिय होना आवश्यक नहीं होता. किसी कार्य में विवेक की निष्क्रियता का एक बड़ा कारण यह होता है कि विवेक की क्रियाशीलता में कुछ समय लगना अपेक्षित होता है. इसलिए शरीर को जब किसी क्रिया की तुरंत आवश्यकता होती है तो वह विवेक की क्रियाशीलता की प्रतीक्षा किये बिना ही शरीर को सक्रिय कर देता है. मन के मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करने का एक अन्य कारण शरीर की इच्छा की प्रबलता होती है. इस स्थिति में भी मनुष्य का विवेक सक्रिय नहीं होता.

चिंतन करना मनुष्य के अभ्यास पर भी निर्भर करता है. जो मनुष्य अधिकाँश समय चिंतन करते हैं उनका मस्तिष्क प्रायः सक्रिय रहता है जो मन पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है. इस कारण से बुद्धिजीवी अपने सभी कार्य विवेक के अनुसार करते हैं, जब कि श्रमजीवी विवेक का यदा-कदा ही उपयोग करते हैं. इन दो वर्गों के मध्यवर्ती लोग कभी मन के तो कभी विवेक के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं. इसके कारण उनके मन और मस्तिष्क में प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है.

मनुष्य के शरीर की आवश्यकताएं यथा भूख, प्यास, काम, आदि प्राकृत होती हैं उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता किन्तु इनकी आपूर्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं. ये आवश्यकताएं सभी जीवधारियों में होती हैं और यही उनके जावन का लक्ष्य भी होती हैं  यदि मनुष्य अपना जीवन इन्ही की आपूर्ति तक सीमित कर देता है तो पशुतुल्य ही होता है. मनुष्यता पशुता से बहुत आगे है - अपनी चिंतन शक्ति, बुद्धि और संस्कारों के कारण. व्यक्ति के संस्कार उसके व्यवहार को संचालित करते हैं जो अच्छे अथवा बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं. उसकी चिंतन शक्ति उसके जीवन की समस्याओं के निवारण के लिए महत्वपूर्ण होती है तथा उसकी बुद्धि मानव सभ्यता को और आगे ले जाने में उपयोग की जाती है. व्यक्ति द्वारा अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति के उक्त सदुपयोगों के अतिरिक्त व्यक्ति इनका दुरूपयोग भी कर सकता है.
Sacraments in Scripture

मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अधिक विकसित होता है जिसमें अथाह स्मृति, चिंतन शक्ति और बुद्धि का समावेश होता है, इसके सापेक्ष अन्य जीवों के मस्तिष्क उनके मन को समर्थन प्रदान करने के लिए ही होते हैं और अधिकाँश में बुद्धि और चिंतन शक्ति का अभाव होता है. इसके कारण मनुष्य ही पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ जीव है, और इसकी विशिष्ट पहचान है - मन और मस्तिष्क का सतत संघर्ष, जिसमें मस्तिष्क प्रायः विजयी रहता है. यही मानव सभ्यता के विकास का मार्ग है.

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

शक्ति की पूजा और दासत्व की मनोदशा

भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व से आज तक जो भारत में नहीं बदला है - वह है जन-साधारण द्वारा शक्ति की पूजा और उनका दासत्व की मनोदशा. वस्तुतः इन दोनों में गहन सम्बन्ध है, इसलिए एक में परिवर्तन हुए बिना दूसरे में परिवर्तन संभव नहीं है. इस मनोदशा के मूल में शासकों और समाज के अग्रणी जनों द्वारा जन-साधारण का सतत संस्कारण है, जो तब से अब तक यथावत किया जा रहा है. लोगों में दासत्व भाव बनाए रखने के लिए उन्हें दयनीय बना कर रखा जाता है.

शक्ति-पूजा का विधि-विधान 
मूलतः व्यक्ति को शक्ति देना शासन नीति के विरुद्ध है. अतः लोगों को शासन के अधीन बनाये रखने के लिए उन्हें संस्कारित इस प्रकार किया जाता है कि वे स्वयं शक्तिहीन हैं और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसकी उन्हें पूजा-अर्चना करनी चाहिए ताकि वह प्रसन्न रहे और यथावश्यकता उनकी रक्षा करता रहे. ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में शक्ति की पूजा का आरम्भ यवनों ने किया जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी देवी दुर्गा के रूप में रात्रि में उनका संहार करने निकलती थीं तो भयभीत होकर वे रात्रिभर जागते रहते थे और देवी के गुणगान करते रहते थे ताकि देवी उनपर कृपा करे और उनका संहार न करे. तब से अब तक किसी न किसी रूप में लोगों को शक्ति की पूजा के लिए संस्कारित किया जाता रहा है ताकि वे स्वयं शक्तिशाली बनने का प्रयास न करके शक्ति पर निर्भर बने रहें.

स्वतन्त्रता के बाद लोगों की शत्रुओं से रक्षा का दायित्व वैधानिक रूप में सेना और पुलिस का है जो लोकतांत्रिक विधान के अनुसार लोगों के अधीन व्यवस्थित हैं. इसे लोगों द्वारा स्वयं अपनी रक्षा के लिए मात्र कार्य विभाजन माना जा सकता है. किन्तु लोगों को पुलिस का उपयोग करने के लिए भी किसी शक्तिशाली माध्यम की आवश्यकता होती है. इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारी जो जनतंत्र में लोकसेवक हैं, से अपने कार्य करने के लिए भी उन्हें सशक्त माध्यम की आवश्यकता होती है. अतः शक्ति पूजा का मूल प्रभाव यह है कि लोग अशक्त हो गए हैं और अशक्त ही बने रहना चाहते हैं. इस बाव से उन्हें दायित्व-विहीन बने रहने का मनोवैज्ञानिक लाभ भी प्राप्त होता है.

लोगों में स्वयं अशक्त बने रहने की भावना इतनी कूट-कूट कर भर दी गयी है कि उन्हें जीवन-यापन हेतु प्रत्येक कदम पर किसी न किसी सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता बनी रहती है. इसी मनोदशा के कारण वे सदैव किसी सशक्त व्यक्ति के अनुयायी बने रहना चाहते रहते हैं, चाहे वह कितना भी दुर्जन क्यों न हो. अतः स्वतंत्र भारत की राजनीति में बलशालियों का बोलबाला है, सज्जनों और विद्वानों के लिए वहां कोई स्थान नहीं रह गया है.

Mercy: Complete First Seasonदया का विधि-विधान
भारत में निर्धन और निस्सहाय पर दया करना प्रत्येक समर्थ व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक उपदेशित किया जाता है, उसे सशक्त  बनाना उपदेशित नहीं किया जाता ताकि उसे किसी की दया की आवश्यकता ही न हो. इस दया विधान में समाज के सभी अग्रणी वर्ग - ईश्वर भक्त, धर्मात्मा, शासक-प्रशासक, राजनेता और समाज सुधारक, आदि सम्मिलित हैं. स्वतन्त्रता से पूर्व इसका उपदेश केवल धर्मात्मा, समाज-सुधारक, आदि ही दिया करते थे, शासक-प्रशासक इस बारे में उदासीन ही रहते थे. किन्तु स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनेताओं ने केन्द्रीय और सभी राज्य सरकारों के माध्यम से इसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मान लिया है, ताकि देश में निर्धन और निस्सहाय लोग सदा बने रहें और उनसे दया की आशा करते रहें. समाज कल्याण योजनाएं यथा आवास-निर्माण हेतु धन, निःशुल्क अथवा सस्ते खाद्यान्न, आदि इसी प्रकार की दया दर्शाने के विधि-विधान हैं. इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्व जो दया विधान सामाजिक स्तर पर था, स्वतन्त्रता के बाद उसे राजनैतिक स्तर पर अपना लिया गया है. इस  संस्कारण के दो स्पष्ट प्रभाव हैं -
  • समाज का निर्धन वर्ग सदा-सदा के लिए निर्धन ही बना रहना चाहता है ताकि वह दया-पात्र बना रहे और उसका जीवन यापन केवल दया के आश्रय पर होता रहे.
  • निर्धन वर्ग में स्वयं समर्थ होने का आत्म-विश्वास नहीं रह गया है जिसके कारण वह सदा किसी न किसी का डस बना रहना चाहता है.   
उपरोक्त दोनों प्रभाव भारत में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में बहुत सशक्त बाधक हैं. वस्तुतः जन-साधारण आज भी एक-क्षत्र  शासन के अधीन रहने योग्य है और वह इसी योग्य बने रहना चाहता है.   

सोमवार, 2 अगस्त 2010

वर्तमान भारत का नायक कैसा हो

आधुनिक भारत में अनेक जन नायक हुए हैं, किन्तु कोई भी लम्बे समय तक नेतृत्व का दायित्व नहीं संभालता पाया गया है. महात्मा गाँधी निश्चित रूप से जन नायक थे किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे नेतृत्व भर से मुक्त ही रहना चाहते थे, अतः उन्हें भी ऐसा जन नायक नहीं कहा जा सकता जो प्रत्येक स्थिति में जनता का नेतृत्व कर सके. अतः गांधी को जन नायक तो कहा जा सकता है किन्तु भारत नायक नहीं कहा जा सकता जिसके लिए कठोर एवं प्रखर राष्ट्रवाद की भावना की आवश्यकता है. इसके विपरीत गाँधी केवल मानवतावादी थे.

स्वतंत्र भारत के नेताओं में केवल एक नाम ऐसा है जो तब से अब तक सम्मान के साथ याद किया जाता है और जिसने अपने दायित्व निर्वाह से स्वयं को अद्वितीय सिद्ध किया था. यह नाम है 'सरदार वल्लभ भाई पटेल', जिन्होंने अंग्रेजों की देन विखंडित भारत को एक छ्त्र के नीचे ला दिया जिसकी क्षमता अन्य किसी नेता में नहीं थी. यदि स्वतंत्र भारत का नेतृत्व सरदार को दिया जाता तो आज देश की यह दुर्दशा न होती जो नेहरु और उसके परिवार ने की है.

दूसरा व्यक्ति जो भारत को सही नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ था वह थे 'नेताजी सुभाष चन्द्र बोस' जिनके लिए देश सर्वोपरि था, लोगों की स्वतन्त्रता अथवा नेताओं के स्वार्थ राष्ट्र हित के समक्ष कोई महत्व नहीं रखते थे. इसी कारण से वे भारत में स्वतन्त्रता के तुरंत बाद जनतंत्र की स्थापना के विरोधी थे. वे चाहते थे कि जनतांत्रिक अधिकार पाने से पहले भारतीयों को अनुशासन सिखाना होगा जिसका उस समय तो नितांत अभाव था ही, आज की स्थिति और भी अधिक दयनीय हुई है.
स्वतन्त्रता से पूर्व के भारत, उसके बाद के भारत में केवल अंतर इतना है कि उस समय विदेशी भारतीयों का बहुविध शोषण कर रहे थे और आज देशी लोग भारतीयों का शोषण ही नहीं कर रहे, उन्हें बहुविध पथ-भृष्ट भी कर रहे हैं ताकि वे कुशासन के विरुद्ध सिर उठाने योग्य ही न रहें. आज के भारत का कुशासन अंग्रेज़ी कुशासन से अधिक घातक है.

भारतीयों में जिन गुणों का नितांत अभाव है तथापि सर्वाधिक अपरिहार्यता है, वे हैं - अनुशासन और राष्ट्रवाद. अतः भारत और भारतीयों को सही दिशा देने के लिए नायक में इन दोनों गुणों की सर्वाधिक आवश्यकता है. अनुशासन के सापेक्ष स्थिति इतनी विकृत कर दी गयी है कि कठोर कदम उठाये बिना इसकी स्थापना संभव नहीं रह गयी है. अतः वर्तमान भारत नायक को कठोर अनुशासक होने की आवश्यकता है जिसमें लोगों की वर्तमान निरंकुश स्वतन्त्रता] जिसने अब उद्दंडता का रूप ले लिया है, का हनन होना स्वाभाविक है. इस विषय में संदेह यह व्यक्त किया जाता है कि लोग इसे पसंद नहीं करेंगे. किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है, जन-साधारण आज के छोटे-बड़े नेताओं से इतना तृस्त है कि वे कठोर अनुशासक को पसंद करेंगे. इसका विशेष कारण यह है कि कठोर अनुशासन में जन-साधारण को कोई हानि नहीं है, हानि केवल आज के स्वार्थी नेतृत्व को ही होनी है. और यही जन-साधारण की हार्दिक अभिलाषा है.
Making Globalization Work

आधुनिक विश्व और वैश्वीकरण के सन्दर्भ में राष्ट्रवाद का महत्व क्षीण है, किन्तु भारत के हितों की रक्षा के लिए और विदेशियों द्वारा इसके शोषण को रोकने के लिए इसकी नितांत आवश्यकता है. राष्ट्रवाद राष्ट्र स्तर पर अपना घर संभालने जैसा कार्य है. आज की विडम्बना यह है कि भारत की आतंरिक स्थिति संभाले बिना इसे वैश्वीकरण में धकेल दिया गया है. जिसके कारण अनेक धनाढ्य देश भारतीय हितों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं और भारत के वर्तमान नेता भारत के इस शोषण में निजी स्वार्थों के लिए सहयोग दे रहे हैं. अतः, आज आवश्यकता यह है कि हमें विश्व की ओर से अपने द्वार कुछ समय के लिए बंद कर अपना घर संभालना चाहिए, जिसके बाद वैस्वीकरण से भारत के हितों को कोई आंच नहीं आ सकेगी. अतः वर्तमान भारत के नायक के लिए कठोर अनुशासक होने के साथ-साथ प्रखर राष्ट्रवादी होने की आवश्यकता है.

रविवार, 1 अगस्त 2010

इच्छाशक्ति

एक मान्यता के अनुसार इच्छाशक्ति मनुष्य की वह आतंरिक इच्छा होती है जिसकी प्रबलता उसे अपने लक्ष्य को पाने की शक्ति प्रदान करती है. इच्छाशक्ति के स्रोतों और प्रभावों के बारे में निरंतर शोध होते रहे हैं. एक अत्याधुनिक शोध ने इच्छाशक्ति के बारे में नवीन परिणाम पाए हैं जो अब तक की मान्यताओं को नकारने के कारण चमत्कारिक कहे जा सकते हैं.

इच्छाशक्ति के अधीन व्यक्ति स्वयं से वार्तालाप में लिप्त रहता है जिसके अंतर्गत उसके चिंतन, विभिन्न संभावनाओं में से सर्वोत्तम के चयन, अपने मंतव्य, आशाएं, भय आदि मध्य उसकी गतिविधियों का सञ्चालन होता है. स्वयं से यह वार्तालाप सतत चलता रहता है.

अभी पाया यह गया है कि जब मनुष्य का मस्तिष्क किसी दृढ इच्छा शक्ति के साथ सफलता के लिए कार्य करता है तो उसकी सफलता की संभावना उस स्थिति की तुलना में कम हो जाती है जब वह मुक्त भाव से कार्य करता है. अर्थात मस्तिष्क को मुक्त रख कर कार्य करने से व्यक्ति की कार्य क्षमता अधिक होती है. इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सफलता की प्रबल कामना से व्यक्ति का मस्तिष्क एक संकुचित दायरे में कार्य करता है, जब कि किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए यह आवश्यक है कि उसके मस्तिष्क के वातायन नवाचार एवं नए विचारों के लिए खुले रहें और ऐसा तभी होता है जब व्यक्ति अपनी कामना के बंधन से मुक्त होकर सफलता की सभी संभावनाओं के लिए प्रस्तुत रहे.

इच्छाशक्ति के बारे में दो संभावनाएं होती हैं - इच्छापूर्ति के भरसक प्रयास करना, तथा इच्छ्पूर्ति के लिए प्रस्तुत रहना अथवा उससे दूर न भागना. आधुनिक शोधों में पाया यह गया है कि कार्य के स्वस्थ सञ्चालन के लिए व्यक्ति को अपनी इच्छापूर्ति के लिए केवल प्रस्तुत रहने की आवश्यकता होती है. इच्छापूर्ति के बंधन में रहने के परिणाम अच्छे सिद्ध नहीं हुए हैं.

इस विषय में गीता के तथाकथित 'निष्काम कर्म' के उपदेश की चर्चा भी प्रासंगिक है जिसके अनुसार फल की इच्छा रखना भी वर्जित है. जब कि हम सभी जानते हैं कि फल की इच्छा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं होता है. विश्व में आज तक किसी भी व्यक्ति ने फल की इच्छा के बिना एक भी कदम नहीं उठाया है, और न ही कभी उठाएगा. अतः 'निष्काम कर्म' की धारणा अव्यवहारिक होने के कारण एक भ्रान्ति मात्र है.
Kiplinger's WILLPower
उपरोक्त अध्ययन से निष्कर्ष यह निकलता है कि व्यक्ति द्वारा इच्छा रखना कार्य सम्पादन के लिए अनिवार्य है किन्तु उससे पूरी तरह बंधकर उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करना वांछित नहीं है. यहाँ यह भी आवश्यक है कि इच्छा रखने से पूर्व व्यक्ति को उसके लिए सुयोग्य होना चाहिए. इस प्रकार सुयोग्य व्यक्ति द्वारा इच्छा रखते हुए मुक्त भाव से कर्म करना ही सफलता का सर्वोत्तम मार्ग है. उसकी इच्छा मात्र ही सफलता के द्वार खोल देने के लिए पर्याप्त होती है.