गुरुवार, 25 मार्च 2010

प्राथमिक विद्यालय का संघर्ष

सन १९६१ में जब में कक्षा ९ में पहुंचा था, तभी से अब सन २००० में अपने व्यावसायिक कार्यों से निवृति पाने तक की लगभग ४० वर्ष की अवधि में प्रमुखतः गाँव से बाहर ही रहा हूँ यद्यपि यदा-कदा संपर्क बना रहा है. सन २००० में जब स्थायी निवास की दृष्टि से यहाँ लौटा तो लोगों को आश्चर्य हुआ, वे कभी कल्पना नहीं कर सके थे कि मैं चीफ इंजिनियर तक के पदों पर कार्य करने वाला व्यक्ति कभी स्थायी रूप से गाँव में रहूँगा.

गाँव में पिताजी के सामाजिक कार्य तथा उनकी लोकप्रियता मुझे विरासत में प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई. गाँव में कुछ दबंगों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था और वे अपनी इच्छानुसार लोगों और उनके साधनों का शोषण कर रहे थे. लोग उनसे दुखी थे किन्तु उनका विरोध यदा-कदा ही कर पाते थे. मेरा गाँव में आना उन्हें अच्छा लगा और मुझे एक गाँव-वासी की तरह तुरंत स्वीकार कर लिया गया.

सन ५६ में पिताजी ने गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय का भवन बनवाया था जहाँ राजकीय विद्यालय उसी समय से चल रहा था. यह बस्ती के अन्दर होने के कारण बच्चों के लिए सुविधाजनक था. मुझे सूचित किया गया कि गाँव का तत्कालीन प्रधान अपने कुछ मित्रों के सहयोग से उक्त प्राथमिक विद्याके को गाँव से बाहर ले जाने की योजना बना रहा है जो गाँव वालों को पसंद नहीं है. मैं गाँव प्रधान से मिला और विद्यालय के स्थापन का कारण पूछा तो मुझे बताया गया कि विद्यालय जिस भूमि पर बना है वह कुछ समय के लिए दान में ली गयी थी और उस दानदाता का उत्तराधिकारी उस भूमि की वापिसी की मांग कर रहा है. उसने सम्बंधित अधिकारियों को इस विषयक वैधानिक नोटिस भी भेज दिया था.

मैंने गाँव वालों की एक सभा बुलाई और उनसे विद्यालय के प्रस्तावित विस्थापन के बारे में उनके विचार आमंत्रित किये. प्रधान समूह के कुछ लोगों के अतिरिक्त शेष गाँव-वासी विद्यालय को वहीं रखने के पक्ष में थे और उनका कहना था कि नवीन प्रस्तावित स्थल गाँव के तालाब के पास है जिसमें कुछ समय पूर्व ही गाँव के तीन-चर बच्चे डूब कर मर चुके थे. दूसरा नए स्थान पर गाँव-वासियों को आगामी चुनावों में स्वतंत्र मतदान नहीं करने दिया जायेगा क्योंकि वह प्रधान समूह के लोगों से घिरा है और गाँव के बाहर किनारे पर है. मुझे यह सब तर्क-संगत लगा और प्रधान से विद्यालय को पुराने स्थान पर ही रखने का आग्रह किया, किन्तु सत्ता के मद से चूर दबंगों ने मेरे सुझाव को अस्वीकार कर दिया और अपनी इच्छानुसार कार्य करने का संकल्प दोहराया. यह गाँव वालों को स्वीकार नहीं था इसलिए मैंने उक्त विस्थापन न होने देने का संकल्प लिया.

गाँव में वैचारिक संघर्ष छिड़ गया - एक ओर निर्बल वर्ग का बहुमत और दूसरी ओर सबल वर्ग का अल्पमत. मैंने सम्बंधित अदिकारियों को गाँव वालों का विरोध दर्शाते हुए पात्र लिख दिए किन्तु उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ और नए स्थान पर विद्यालय भवन निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया गया. एक ओर गाँव-वासियों को संगठित करने तथा दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारियों को वस्तु-स्थिति से अवगत कराते हुए उनसे निर्माण कार्य के लिए धन न देने का अभियान चल पड़ा जिसमें प्रधान वर्ग के अतिरिक्त गाँव के सभी वर्गों का सहयोग मिला. इस पर भी शिक्षा विभाग ने निर्माण हेतु धन प्रदान कर दिया.

अंततः यह विवाद जिलाधिकारी तक पहुंचा जो हमारे प्रतिनिधियों के तर्कों के समक्ष विद्यालय को पुराने स्थल पर ही रखने का आदेश दे देता तो दूसरी ओर कुछ राजनेताओं के दवाब में आकर विद्यालय स्थानांतरण के आदेश दे देता. इस कारण से निर्माण कार्य चलता रहा. मैं बुलंदशहर स्थित मुहाफिजखाने में गया जहां प्राचीन दस्तावेज़ संग्रहित रखे जाते हैं, और सन १९५४ से आगे के अपने गाँव संबंधी आलेखों की जांच आरम्भ की जिस पर मैंने पाया की विद्यालय की भूमि गाँव-सभा के नाम पर पिताजी ने १,००० रुपये में खरीदने के बाद उस पर भवन बनाया था. इस दस्तावेज की प्रतिलिपि प्राप्त कर ली गयी.
 
दस्तावेज को लेकर मैं कुछ गाँव-वासियों को साथ लेकर उप जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना देने पहुँच गया आर उसे दस्तावेज़ दिखाया. आरम्भ में उप जिलाधिकारी ने हम सबको भयभीत कर भगाने का प्रयास किया जिस पर मुझे आवेश आ गया और मैंने उप जिलाधिकारी को धमकी दी कि मुझे वही करना पड़ेगा जो मेरे पिताजी अँगरेज़ अधिकारियों के साथ किया करते थे. देश में जनता का शासन है और उस जैसे अधिकारी केवल सेवक मात्र थे और उसे चेतावनी दी कि वह शहंशाह बनने का प्रयास न करे.

उसकी समझ में मेरी धमकी आ गयी और उसने मुझसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि मैं क्या चाहता था. मैंने उसे बताया कि पुलिस को आदेश देकर निर्माण कार्य तुरंत रोका जाये, और विद्यालय का नवीन भवन पुराने स्थान पर ही बनाया जाये. उसने पुलिस को आदेश किया औए उसे मुझे थमा दिया कि मैं पुलिस को वह आदेश दे दूं. गाँव में एक पुलिस निरीक्षक पहुंचा और निर्माण कार्य रोकने के स्थान पर उसे तीव्र गति से पूर्ण करने का व्यक्तिगत परामर्श देकर चला आया. इसकी सूचना मुझे मिल गयी और मैंने उप जिलाधिकारी को फ़ोन पर इसकी सूचना देते हुए बताया कि मैं गाँव-वासियों के साथ पुनः धरना देने आ रहा हूँ. किन्तु उसने मुझसे न आने का सुझाव दिया और आश्वासन दिया कि निर्माण कार्य रोक दिया जायेगा. उसने स्वयं आकर निर्माण कार्य रोक देने का आदेश दे दिया जिसका तुरंत अनुपालन हुआ.

अगले ही दिन जिलाधिकारी ने राजनेताओं के दवाब में आकर निर्माण कार्य पूरा करने का आदेश दे दिया और कार्य तीव्र गति से आरम्भ कर दिया गया. अब मेरे पास गांधीजी के सर्ताग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग शेष नहीं था..रात में ही विद्यालय प्रांगण में पंडाल लगवा दिए गए, और मैं जिलाधिकारी, पुलिस और मुख्य चिकित्साधिकारी को सूचित कर प्रातः आमरण भूख हड़ताल पर बैठ गया. गाँव वालों की भीड़ मेरे पास जमा रहने लगी. स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित होने लगे और आसपास के गाँव वाले भी मेरे समर्थन में एकत्र होने लगे. २५०० की जनसँख्या वाले गाँव में मेरे आसपास लगभग १००० स्त्री-पुरुषों का समुदाय मेरे पास रहने लगा.

A Fine, Fine Schoolभूख हड़ताल के तीसरे दिन उप जिलाधिकारी, पुलिस क्षेत्राधिकारी और एक पुलिस दल कुछ मजदूरों को लेकर मेरे पास पहुंचे और मुझसे पूछा कि वे कहाँ बैठें ताकि दोनों पक्षों के दस्तावेजों की जांच कर सकें. मैंने कहा कि वे मेरे पास भूमि पर ही बैठकर जांच करें. दूसरे पक्ष को भी बुला लिया गया और उनका पक्ष भी सुना गया. अंततः मुझसे पूछा गया कि विद्यालय के नए बावन की नींव की खुदाई कहाँ होनी थी और गाँव-वासियों के सुझावानुसार खुदाई आरम्भ कर दी गयी. साथ ही प्रधान पक्ष को भी आदेश दिया गया कि वे दूसरे स्थान पर हुए निर्माण को ध्वस्त कराएँ और सभी निर्माण सामग्री को इसी स्थान पर लाकर भवन निर्माण आरम्भ करें. संतोषजनक आश्वासन पर भूख-हड़ताल समाप्त कर दी गयी.

इस प्रकरण से जहाँ मुझे नैतिक बल मिला वहीं गाँव-वासियों को मेरी कार्य पद्यति पर विश्वास भी हो गया. यह मेरा प्रथम सामाजिक प्रयोग था जो पूर्णतः सफल रहा.   

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